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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
नोट-वस्तु निरूपण महा अधिकार में अखण्ड द्रव्य का निरूपण करनेवाला पहला अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ। इस अधिकार की मूल भित्ति श्लोक नं. ८ है।
दूसरा अवान्तर अधिकार द्रव्य का भेद दृष्टि से निरूपण ७१ से १०२ तक द्रव्यत्वं किग्जाम पृष्टश्चेतीह केनचित् सूरिः।
प्राह प्रमाणसुनयैरधिगतमिव लक्षणं तस्य ॥ ७१ ॥ अर्थ-किसी ने आचार्य से पूछा कि महाराज ! द्रव्यपना क्या पदार्थ है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उस द्रव्यपने का प्रमाण और सुनयों द्वारा अच्छी तरह मनन किया हुआ लक्षण कहने लगे।
गुणपर्ययवद्रव्यं लक्षणमेतत्सुसिद्धमविरुद्धम् ।
गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं पुनरस्य भवति वाक्यार्थः ॥ ७२ ॥ अर्थ-जिसमें गुणपर्याय पाये जायें वह द्रव्य है। यह द्रव्य का लक्षण अच्छी तरह सिद्ध है। इस लक्षण में किसी प्रकार का विरोध नहीं आता है। "गुणपर्याय जिसमें पाये जायें वह द्रव्य है" इस वाक्य का स्पष्ट अर्थ यह है कि गुण और पर्यायों का समुदाय ही द्रव्य है। द्रव्य के इस लक्षण में प्रत्यक्ष अनुमान या आगम आदि किसी भी प्रमाण से विरोध नहीं आता है इसलिए यह सुसिद्ध और अविरुद्ध कहा गया है।
भावार्थ-"गुणपर्ययवद्रव्यं" इस वाक्य में मतुप् प्रत्यय है। उसका ऐसा अर्थ निकलता है कि गुणपर्याय वाला द्रव्य है। इस कथन से कोई यह न समझ लेवें कि गुणपर्याय कोई दूसरे पदार्थ हैं जोकि द्रव्य में रहते हैं और उन दोनों का आधारभूत द्रव्य कोई दूसरा पदार्थ है। इस अनर्थ अर्थ के समझने की आशंका से आचार्य नीचे के चरण से स्वयं उस वाक्य का स्पष्ट अर्थ करते हैं कि "गुणपर्यायवाला द्रव्य है" अथवा गुणपर्याय जिसमें पाये जायें वह द्रव्य है" इन दोनों का यही अर्थ है कि गुणपर्यायों का समूह ही द्रव्य है। यह बात पहले ही कही जा चुकी है कि अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड ही द्रव्य है और वे गुण प्रतिक्षण अपनी अवस्था को बदलते रहते हैं। इसलिये त्रिकालवी पर्यायों को लिए हुए जो गुणों का अखण्ड पिण्ड है वह द्रव्य है। गुणपर्याय से पृथक् कोई द्रव्य पदार्थ नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करते हये किन्हीं आचार्यों का कथन प्रगट करते हैं:
गुणसमुदायो दव्यं लक्षणमेतावताप्युशन्ति बुधाः ।
समगुणपर्यायो वा द्रव्यं कैश्चिन्निरूप्यते वृद्धैः ॥ ७३ ॥ अर्थ-कोई-कोई बद्धिधारी'गणसमदाय ही द्रव्य है'ऐसा भी द्रव्य का लक्षण कहते हैं। किन्हीं विशेष अनुभवी वृद्ध पुरुषों द्वारा“सम्पूर्ण गुणपर्यायों के बराबर"ही द्रव्य कहा गया है।
भावार्थ-पहले श्लोक में गुण और पर्याय दोनों को ही द्रव्य का लक्षण बतलाया गया था परन्तु यहाँ पर पर्यायों को गुणों से पृथक् पदार्थ न समझ कर गुण समुदाय को ही द्रव्य कहा गया है। वास्तव में गुणों की अवस्था विशेष ही पर्यायें हैं। गुणों से सर्वथा भिन्न पर्याय कोई पदार्थ नहीं है। इसलिये गुणपर्याय में अभेद बुद्धि रखकर गुण समुदाय ही द्रव्य कहा गया है। कोई सम्पूर्ण गुण और उनकी त्रिकालवी सम्पूर्ण पर्यायों को ही द्रव्य कहते हैं।
अयमत्राभिप्रायो ये देशास्तद्गुणारत्तदंशाश्च ।
एकालापेन समं दव्यं नाम्ना ते एव निशेषम् ॥ ७४ ॥ र्थ-उपर्युक्त कथन का यह अभिप्राय है कि जो देश (प्रदेश) है, उन देशों ( प्रदेशो) में रहनेवाले जो गुण हैं तथा उन गुणों के जो अंश है, उन सबकी ( प्रदेश+ गुण + गुणांशों की) एक ही शब्द द्वारा द्रव्य संज्ञा है। (यहाँ देशदेशांश को भिन्न-भिन्न न कहकर दोनों की जगह मल गाथा में 'देशाः' शब्द का प्रयोग किया गया है।)