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प्रथम खण्ड/ प्रथम पुस्तक
भावार्थ - वस्त्र द्रव्य दृष्टि से अवस्थित हैं और पर्याय दृष्टि से अनवस्थित है।
अपि चात्मा परिणामी ज्ञानगुणात्वादवस्थितोऽपि यथा । अनवस्थितस्तदंशैस्तरतमरूपैर्गुणस्य बोधस्य ॥ ६७ ॥
अर्थ - आत्मा में ज्ञान गुण सदा एकरूप रहता है। यदि ज्ञान गुण्ण का आत्मा में अभाव हो जाय तो उस समय आत्मत्व ही नष्ट हो जाय। इसलिये उस गुण की अपेक्षा से तो आत्मा अवस्थित है परन्तु उस गुण के निमित्त से आत्मा का परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है, कभी ज्ञान गुण के अधिक अंश व्यक्त हो जाते हैं और कभी कम अंश प्रकट हो जाते हैं। उस ज्ञान में सदा हीनाधिकता (संसारावस्था में ) होती रहती है। इस हीनाधिकता के कारण आत्मा अनवस्थित भी है । ( सिद्ध में ज्ञान गुण में षट्गुणी हानिवृद्धि से अनवस्थित है। )
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नास्ति से इसी का कथन ६८-६९-७० तीन इकट्ठे
यदि पुनरेवं न भवति भवति निरंशं गुणांशवद् द्रव्यम् ।
यदि वा कीलकवदिदं भवति न परिणामि वा भवेत्क्षणिकम् ॥ ६८ ॥
अथ
चंदिदमाकृतं भवन्नयनन्ता निरंशका अंशाः ।
तेषामपि परिणामो भवतु समांशो न तरतमांशः स्यात् ॥ ६४ ॥
अर्ध-यदि उक्त कथनानुसार वस्तु को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अवस्थित और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनवस्थित नहीं माना जाता है और इसके विपरीत तुम्हारा यह अभिप्राय हो कि ( १ ) या तो द्रव्य गुणांश के समान निरंश है ( २ ) अथवा परिणामी न होकर कीलक के समान नित्य है अथवा ( ३ ) क्षणिक है अथवा ( ४ ) अनन्त निरंश अंश तो है पर उनका तरतमरूप परिणमन न होकर समान परिणमन होता है। तो
एतत्पक्षचतुष्टयमपि दुष्टं
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दृष्टबाधितत्वाच्च ।
तत्साधकप्रमाणाभावादिह सोऽप्यदृष्टान्तात् ॥ ७० ॥
अर्थ-ये चारों पक्ष भी दूषित हैं क्योंकि एक तो ऐसा मानना प्रत्यक्ष से बाधित है, दूसरे उनका साधक कोई प्रमाण नहीं पाया जाता है और उस साधक प्रमाण का अभाव इसलिये है कि जहाँ साध्य साधन की व्याप्ति विषयक सन्देह का निवारण किया जाय ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं मिलता है।
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भावार्थ -- द्रव्यार्थिक नय से वस्तु अवस्थित और पर्यायार्थिक नय से अनवस्थित है। इस प्रकार की प्रतीति होने के कारण द्रव्य-गुण-गुणांश (पर्याय) कल्पना सार्थक है ऐसा पहले सिद्ध किया गया है। अब उसी को दृढ़ करने के लिये व्यतिरेक रूप से ऊहापोह करते हैं - ( १ ) शंकाकार पहले पक्ष में द्रव्य को निरंश अर्थात् गुणपर्याय रहित मानना चाहता है (२) दूसरे पक्ष में गुण तो मानता है पर गुणांश नहीं मानता अर्थात् कूटस्थ नित्य मानता है (३) तीसरे पक्ष
गुण तो मानता है पर गुण नहीं मानता अर्थात् क्षणिक मानता है ( ४ ) चौथे पक्ष में गुण-गुणांश तो मानता है पर उसमें हीनाधिक परिणमन नहीं मानता, समान परिणमन मानता है। दृष्टान्त द्वारा साधन व्याप्त साध्य रूप धर्म के मिल जाने से पक्ष की सिद्धि हुआ करती है। इस न्याय से उक्त चारों पक्षों के लिये किसी दृष्टान्त का मिलना ही असंभव है। इसलिये साधक प्रमाण के न मिलने से उक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि केवल प्रतिज्ञा मात्र से साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती है। भाई ( १ ) यदि द्रव्य को निरंश माना जाय तो उसमें गुणपर्यायों का भेद न रहेगा। बिना विशेष के सामान्य तो कुछ रहता ही नहीं ( २ ) यदि द्रव्य को नित्य माना जाय तो उसमें कोई विक्रिया नहीं हो सकती। विक्रिया के अभाव में तत्व क्रिया फल कारक कारण कार्य इत्यादि की व्यवस्था कुछ भी नहीं ठहर सकती है। आगे देखिये ४२२ से ४२६ तक 1( ३ ) सर्वथा क्षणिक मानने में प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता। कार्य कारण हेतु फल भाव भी नहीं हो सकता। आगे देखिये ४२९ से ४३२ तक । ( ४ ) यदि अनन्त निरंश अंश मानकर उनका समान परिधामन माना जाय, तरतम रूप न माना जाय तो द्रव्य सदा एकसा ( अवस्थित ) रहेगा। उसमें अवस्था भेद (अनवस्थितपना ) न हो सकेगा। सिद्ध संसारी का भेद मिट जायेगा । इसलिये उपरोक्त चारों ही विकल्प काल्पनिक प्रत्यक्ष मिथ्या है। उनमें अनेक बाधायें आती हैं और वस्तु प्रत्यक्ष वैसी है ही नहीं।