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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
नोट- ३८ से यहाँ तक गुण और उनके परिणमन का विवेचन हुआ अर्थात् द्रव्य की लम्बाई का कश्चन हुआ। द्रव्य की चौड़ाई का निरूपण पहले २५ से ३७ तक किया था। लम्बाई का अब कर दिया। इस प्रकार श्लोक नं.८ में कहे हुये अखण्ड द्रव्य का परिज्ञान कराया।
अगली भूमिका पहले ८ से १४ तक अखण्ड सत् का निरूपण किया, फिर १५ से २२ तक उसे सामान्यविशेषात्मक सिद्ध किया। फिर २३ से ३७ तक उसकी चौड़ाई बतलाई, फिर ३८ से १३ तक उसकी लम्बाई बतलाई इस प्रकार अखण्ड सत् का परिज्ञान कराया। अब यह समझाते हैं कि एक दृष्टि से वह सत् सदा अवस्थित-ज्यों का त्यों रहता है और दूसरी दृष्टि से वह सत् अनवस्थित है प्रति समय का सत् हीनाधिक रूप भिन्न-भिन्न है। जैसे एक दृष्टि से एक ही जीव की
र्याय में वह सत वही का वही वैसा का वैसा ही है यह अवस्थित दष्ट्रि-द्रव्य दष्टि है और एक दष्टि से संसारी सिद्ध में जमीन आसमान का अन्तर है यह अनवस्थित दृष्टि-पर्याय दृष्टि है। इसका वर्णन ६४ से ७० तक करेंगे। वस्तु के अवस्थित-अनवस्थितपने का वर्णन ६४ से ७० तक
शंका ननु मोघमेतदुक्तं सर्व पिष्टस्य प्रेषणन्यायात् ।
एकेनैव कृतं यत् स इति यथा वा तदंश इति वा चेत् ॥ ६ ॥ अर्थ-ऊपर जितना भी कहा गया है सभी पिष्ट पेषण है अर्थात् पीसे हुये को पीसा गया है। एक के कहने से ही काम चल जाता है। या तो द्रव्य ही कहना चाहिये अथवा पर्याय ही कहना चाहिये । द्रव्य और पर्याय को जुदा-जुदा कहना निष्फल है।
भावार्थ-शंकाकार का कहना है कि द्रव्य के अंशों को ही तो पर्याय कहते हैं। फिर द्रव्य भी कहना, पर्याय भी कहना यह व्यर्थ नहीं तो और क्या है ? एक से ही काम चल जायेगा। चाहे द्रव्य कहो या पर्याय कहो ?
___समाधान ६५ से ६७ तक तन्जैन फलवत्त्वाद् दव्यादेशादवस्थितं वस्तु ।
पर्यायादेशादिदमनवस्थितमिति प्रतीतत्त्वात् ॥६५॥ अर्ध-ऊपर जो शंका की गई है वह ठीक नहीं है। द्रव्य और पर्याय दोनों का ही निरूपण आवश्यक सार्थक सफल सप्रयोजन है। द्रव्य की अपेक्षा से वस्तु अवस्थित रूप से और पर्याय की अपेक्षा से वस्तु अनवस्थित रूप से अनुभव में आती है। इसलिये पूर्वोक्त प्रकार से कथन करना सार्थक है।
भावार्थ-द्रव्य और पर्यायों का मानना इसलिये सार्थक है कि सामान्यपने से द्रव्यार्थिक नय से-सत् अवस्थित-सदैव एक सा -प्रतीत होता है। पर्यायार्थिक नय से प्रत्येक सत् में तरतमरूप से विशेषता प्रतीत होती है।
पुनः भावार्थ-द्रव्यार्थिक नय का विषय द्रव्य (गुण) है। इस अपेक्षा से वस्तु त्रिकाल एक रूप है।
पर्यायार्थिक नय का विषय पर्याय ( गुणांश) है। इस अपेक्षा से वस्तु प्रत्येक समय एक जैसी नहीं है। यह तुझे द्रव्य ( गुण) और पर्याय ( गुणांश) समझाने का प्रयोजन है। ये दोनों मानने से ही वस्तु द्रव्यार्थिक नय से अवस्थित और पर्यायार्थिक नय से अनवस्थित बनेगी, अन्यथा नहीं।
स यथा परिणामात्मा शुक्लादित्वादस्थितश्च पटः ।
अनवस्थितश्तदंशैरतरतमरूपैर्गुणस्य शुक्लस्य ॥ ६६ ॥
प्रकार शक्लादि अनन्तगणों का समह वस्त्र अपनी अवस्थाओं को प्रतिक्षण बदलता रहता है। अवस्थाओं के बदलने पर भी शक्लादिगण ज्यों के त्यों रहते हैं। इसलिये तो वह वस्त्र अवस्थित है। साथ ही शक्लादि गुणों के तरतम रूप अंशों की अपेक्षा से अनवस्थित भी है।