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अथराज श्री पञ्चाध्यायी
पर इससे गुण और पर्याय द्रव्य स्थानीय नहीं हो जाते हैं क्योंकि यह विश्लेषण करने का एक प्रकार हैं। वस्तुतः द्रव्य में जो उत्पाद और व्यय होता है उसी का दूसरा नाम पर्याय है और उसका उसमें लक्षित होनेवाली शक्तियों के रूप में सदाकाल बने रहना ही धौव्य है। इस प्रकार ये परस्पर में पर्यायवाची ठहरते हैं-तत्त्वतः इनमें कोई भेद नहीं है।
प्रमाण-श्लोक ७१ से १०२ तक का संपूर्ण विषय ग्रन्थकार ने श्री पंचास्तिकाय गाथा १० मूल तथा टीका से ज्यों का त्यों लिया है। लक्षणों की परस्पर अभिव्यंजकता भी इसी की टीका से ली है। इसे आप केवल उस गाथा का भाष्य समझें तो कोई अति-उक्ति न होगी।
यहाँ तक का सार कोई पूछे कि द्रव्य का लक्षण क्या है तो उत्तर वही है जो श्लोक नं.८ में दिया गया है कि "जो सत् रूप, स्वतः सिद्ध, अनादि अनन्त,स्वसहाय और निर्विकल्प(अखण्डित)है वह द्रव्य है।"यह द्रव्य का लक्षण सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि द्रव्य अखण्ड है और यह लक्षण भी उसके अखण्डपने को प्रगट करता है। यह लक्षण अभेद दृष्टि का है और जगत् में अभेद को बिना भेद के कोई समझ नहीं सकता । अतः कोई भेद सूचक लक्षण चाहिये जो इसका अभिव्यंजक ( पूरक प्रकाशक ) हो।वे लक्षण ये हैं-(१)गुणपर्ययवद् द्रव्यं ( २) गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं (३) गुण-समुदायो द्रव्यं (४) समगुणपर्यायो द्रव्यं । इसको भी और स्पष्ट करना हो तो कहते हैं कि देश-देशांश, गुण-गुणांश का समुदायतन्मय पिण्ड द्रव्य है। देश अर्थात अखण्ड प्रदेश द्रव्य, देशांश अर्थात प्रदेशकल्पना क्षेत्र, गण अर्थात त्रिकाली शक्तियां-स्वभाव अथवा भाव, गुणांश-गुणों के अविभाग-प्रतिच्छेद-पर्याय-अथवा काल।
सत् लक्षण (श्लोक नं. ८ ) में अखण्ड पिण्ड था। उसका बोध कराने के लिये गुणपर्यय दो खण्ड कल्पना की और अधिक स्पष्ट समझाने के लिये देश-देशांश, गुण-गुणांश की अर्थात् द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की कल्पना की और साथ-साथ यह बताया है कि भिन्न-भिन प्रदेश रूप से धन धनीवत् यह भेद नहीं है किन्तु आम में स्पर्श-रस-गंधवर्णवत् है। चारों का अखण्ड पिण्ड आम है। उसी प्रकार गुणपर्यायों का तन्मय पिण्ड द्रव्य है।
आचार्यों की वस्तु पकड़ाने के लिये बड़ी करुणा रही है। इसी बात को समझाने के लिये एक और दंग प्रयोग किया कि वह खण्ड कल्पना इस प्रकार भी हो सकती है कि जो "उत्पादव्ययधौव्यमय" है वह द्रव्य है। इससे पहला लक्षण जो गुणपर्ययवद् द्रव्य था वह स्पष्ट हो जाता है। गुण किसको कहते हैं जो त्रिकाल स्थायी हो अर्थात् धौव्य । पर्याय किसको कहते हैं जो पैदा हो और नाश हो अर्थात् उत्पाद, व्यय।
गुणर्ययवद्रव्यं = उत्पादव्ययधोव्ययुक्तं सत् । उनको लक्ष्य लक्षण समझो या स्वभाववान और स्वभाव समझो। परस्पर अभिव्यंजक समझो। सब एक ही बात है।
इस प्रकार श्लोक ८ से ७० तक जो अभेद अखण्ड दृष्टि से द्रव्य का निरूपण किया था। उसी का स्पष्टीकरण भेद दृष्टि से ७१ से १०२ तक किया। ग्रन्थकार ने पहले निरूपण का नाम तत्त्व अर्थात् द्रव्य निरूपण दिया है। दूसरे का नाम द्रव्यत्व निरूपण दिया है। इसका कारण यह है कि द्रव्य शब्द मूलवस्तु का द्योतक है और द्रव्यत्व शब्द उसके पेट में क्या है उसका द्योतक है। अतः स्वभावतः द्रव्य अखण्ड वस्तु का प्रकाशक है और द्रव्यत्व उसके माल का, भेद का, स्वभाव का द्योतक है जो गुणपर्याय या उत्पाद-व्यय-धौव्य है।
इस प्रकार भेदाभेद दृष्टि से यहाँ तक द्रव्य का निरूपण पूरा हुआ। अब उस द्रव्य के गुणपर्याय उत्पाद-व्यय-धौव्य एक-एक अवयव का क्रमश: भिन्न-भिन्न निरूपण करेंगे ताकि वस्तु स्पष्ट हो जाय।
आवश्यक सूचना-यह ध्यान रहे कि अभेद को समझाने के लिये भेद है भेद में अटकने के लिये भेद नहीं है। अभेद निश्चय है , सम्यक् है, भूतार्थ है, अनुभव का विषय है। अभेद के आश्रय मोक्षमार्ग है और भेद व्यवहार है, झूठा है, अभूतार्थ है, राग का विषय है। भेद के आश्रय आश्रव बंध संसार हैं।।
नोट-वस्तु निरूपण महा अधिकार में द्रव्य को भेद दृष्टि से निरूपण करनेवाला दूसरा अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ। इस अधिकार की मूल भित्ति श्लोक नं. ७२, ८६, ८९ हैं।