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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक श्री समयसारजी में कहा है जो सिद्भभतिजुतो उपगृहणगो दु सब्बधम्माणं । सो उदग्रहणकारी सम्माटिद्री मुणयन्तो ॥ २३२॥ सूत्रार्थ - जो चेतयिता सिद्ध की अर्थात् शुद्ध आत्मा की भक्ति से युक्त है और परवस्तुओं के सर्व धर्मों को गोपने वाला है ( अर्थात् रागादि परभावों से युक्त नहीं होता है ) उसको उपगूहन करने वाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि ,टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयता के कारण, समस्त आत्मशक्तियों की वृद्धि करता है, इसलिये उपबृहक अर्थात् आत्मशक्ति बढ़ाने वाला है। श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदोषनिगूटनमपि विधेयमुपबंहणगुणार्थम् ॥ २७॥ सूत्रार्थ - उपबंहण गुण के लिये मार्दव, क्षमा आदि भावना द्वारा सदा अपनी आत्मा का धर्म बढ़ाना चाहिये और दूसरे के दोषों को भी गुप्त रखना चाहिये। श्रीरत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है स्वयं शुमच्या मास्थि आलाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तदवदन्त्यपगहनम ॥१५॥ सूत्रार्थ - स्वयं शुद्ध मार्ग की अज्ञानी तथा असमर्थ जीवों द्वारा उत्पन्न हुई निन्दा को जो दूर करते हैं उसको उपगृहन अंग कहते हैं। श्रीअमितगतिश्रावकाचार में कहा है यो निरीक्ष्य यतिलोकदूषणं कर्मपाकजनितं निशुद्धधीः । सर्वथाम्यवति धर्मबुद्धितः कोविदारस्तमुपगृहकं विदुः ॥ ७७ ।। सूत्रार्थ - जो निर्मलबुद्धिपुरुष कर्म के उदयकरि उपज्या ज्यों यतिजननि का दूषण ताहि देखकर धर्मबुद्धि सर्व प्रकार गौपे है ताहि पंडितजन उपगृहन कहै हैं अर्थात् जो पर के दोष वा अपने गुण ढांकना सो उपगृहण अंग जानना तथा इस ही अंग का नाम उपबहण भी कह्या तथा 'आत्म शक्ति का पुष्ट करना' अर्थ ग्रहण किया है। दसवाँ अवान्तर अधिकार स्थितिकरण अंग सूत्र १५५५ १५७० तक १६ सुस्थितीकरणं नाम गुणः सम्यग्दृगात्मनः । धर्माच्युतस्य धर्मे तद् नाधर्मेऽधर्मणः क्षते ॥ १५५५ ।। सूत्रार्थ - स्थितिकरण नामा गुण भी सम्यग्दृष्टि आत्मा का है। धर्म से च्युत को धर्म में स्थिर करना वह स्थिति करण है। अधर्म के नाश से अधर्म में पुनः स्थित करना वह स्थितिकरण नहीं है ( अस्ति-नास्ति से लिखा है)। न प्रमाणीकृत वृद्धैर्धायाधर्मसेवनम् । भाविधर्माशया केचिन्मन्दाः सावधवादिनः ॥ १५५६ ॥ सुत्रार्थ-वृद्ध पुरुषों के द्वारा धर्म के लिये अधर्म का सेवन प्रमाणिक नहीं माना गया है। कोई-कोई मन्द बुद्धिवाले (अज्ञानी) भावि धर्म की आशा से पाप (अधर्म ) के सेवन को कहते हैं। परम्परेति पक्षस्य नावकाशोऽत्र लेशतः । मूरर्वादन्यत्र नो मोहाच्छीतार्थ वन्हिमाविशेत् ॥१५५७ ।। सूत्रार्थ - अधर्म सेवन परम्परा से धर्म का कारण है इस पक्ष का भी यहाँ लेशमात्र अवकाश (स्थान) नहीं है। क्योंकि मूर्ख को छोड़कर दूसरा कौन प्राणी मोह से शीत के लिये अग्नि में प्रवेश करेगा ? अर्थात् कोई नहीं।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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