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________________ ४१२ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी नैतद्धर्मस्य प्रात्यूपं प्रानाधर्मस्य सेवनम् । व्याप्तेरपक्षधर्मत्वाद्रेतो; व्यभिचारतः ॥ १५५८ ।। सूत्रार्थ - पहले अधर्म का सेवन करना यह धर्म का पूर्वरूप नहीं है क्योंकि अधर्म सेवन रूप हेतु का विपक्षभूत अधर्म प्राप्ति में भी रह जाने से व्यभिचारी है। इसलिये अधर्म सेवन और धर्म प्राप्ति की व्याप्ति भी व्यभिचारित है। प्रतिसूक्ष्मक्षणं यावद्धेतोः कर्मोदयात्रवतः । धर्मो वा स्यादधर्मो वाऽप्येष सर्वत्र निश्चयः ॥ १५५९ ।। सूत्रार्थ - प्रत्येक सूक्ष्म समय में कर्म उदय में जुड़ने के कारण से स्वयं शुभ अथवा अशुभ दोनों होते रहते हैं यह सर्वत्र निश्चय है। तरिस्थतीकरणं द्वेधाऽध्यक्षास्तापरभेदतः ।। स्वात्मनः स्वात्मतत्वेऽर्थात्परत्वे तु परस्य तत् || १५६०॥ सूत्रार्थ - प्रत्यक्ष स्व और पर के भेद यह स्थितिकरण दो प्रकार का है। अर्थात् अपनी आत्मा का अपनी आत्मा में स्थित करना स्वस्थितिकरण है और दूसरे की आत्मा में स्थित करना-परस्थितिकरण है। तत्र मोहोदयोद्रेकाच्च्युतस्यात्मस्थितेश्चितः । भूयः संस्थापन रचस्य स्थितीकरणमात्मनि ॥ १५११॥ सूत्रार्थ - स्थितिकरण के उन दोनों भेदों में से जो मोह के उदय के उद्रेक (तीव्रता) से अपनी स्थिति से च्युत हुये अपनी आत्मा को फिर से अपनी आत्मा में स्थापित करना है वह स्व का स्थितिकरण है। अय भाव: ववचिदैवाददर्शनास पतत्यधः । तजत्यूवं पुनर्देवात्सम्यगारुह्य दर्शनम् ॥ १५६२ ।। सत्रार्थ - भाव यह है कि कभी कर्म उदय का आश्रय करने से वह सम्यग्दर्शन से नीचे गिर जाता है और फिर कर्म से ( कर्म के उपशमादि से) सम्यग्दर्शन को भले प्रकार पाकर फिर ऊपर चढ़ जाता है। अथ क्वचिद्यथाहेतु दर्शनाटपतङ्कपि । भावशुद्धिमधोडधोंशैरुद्धमूर्ध्वं प्ररोहति ।। १५६३ ॥ सूत्रार्थ - और कभी कारण के अनुसार दर्शन से नहीं गिरता हुआ भी भावों की शुद्धि को नीचे-नीचे के अंशों से ऊपर-ऊपर को बढ़ाता है। क्वचिद्वहिः शुभाचारं स्वीकृतं चापि मुंचति । न मुँचति कदाचिद्वै मुक्त्वा वा पुनराश्रयेत् ॥ १५६५ ।। सूत्रार्थ - और कभी बहिरंग स्वीकृत शुभाचार को भी छोड़ देता है। कभी नहीं छोड़ता है। अथवा कभी छोड़कर फिर से ग्रहण कर लेता है। यद्वा बहिःक्रियाचारे यथावस्थं स्थितेऽपि च ।। कदाचिद्दीप्यमानोऽन्तर्भावैर्भूत्वा च सर्तते ॥ १५६५ ॥ सूत्रार्थ - अथवा बाह्य क्रियाचार में यथा अवस्थित स्थित रहने पर भी कभी-कभी अन्तरंग भावों से दैदीप्यमान हो करके वर्तता है। नासम्भवमिदं यरमाच्चारित्रावरणोदयः । अस्ति तरतमरखांशैर्गच्छसिम्जोन्जतामिह || १५६६॥ सत्रार्थ - यह कथन असम्भव नहीं है क्योंकि चारित्रावरण का उदय तस्तमरूप अपने अंशों से हीनाधिक अवस्था को यहाँ प्राप्त होता रहता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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