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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ
यहाँ पर शङ्का हो सकती थी कि शुभ तो बन्ध है उसे वह क्यों पालता है तो कहते हैं कि. अशुभ बचने के लिये पालता है क्योंकि उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति तो कभी-कभी अन्तर्मुहूर्त के लिये होती है। हर समय तो उपयोग पर में ही रहता है। यदि उस समय उपयोग को शास्त्र स्वाध्याय और शुभ आचरण में नहीं लगायेगा तो स्वभावतः उपयोग अशुभ में चला जायेगा और संभव है उसके साथ शुद्ध भाव भी छूट जाये क्योंकि अशुभ का जीव को अनादि का अभ्यास है। वहाँ उपयोग जल्दी रमता है। अतः सम्यग्दृष्टि अशुभ से बचने के लिये शुभ भी पालता है एक दृष्टान्त से इस भाव की पुष्टि करते हैं कि आतशिक (गरमी का रोग ) इत्यादिक रोगों को दूर करने के लिये पारे आदि की भस्म खाते हैं। साथ में यदि बदपरहेजी से बचे रहें तो रोग अच्छा हो जाता है अन्यथा निरोगता तो दूर रहो, पारे से शरीर फटकर और व्याधि बढ़ जाती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि संसार रोग को नाश करने के लिये शुद्धरत्रय की दवाई करता है। परहेजवत् अशुभ से बचा रहता है तो मोक्ष की सिद्धि कर लेता है । यहाँ तक तो पुरुषार्थ पूर्वक उपबृंहण की सिद्धि की, अब सिद्धान्त दृष्टि से उपबृंहण की सिद्धि करते हैं.
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यद्वा सिद्धं विनायासात्स्वतस्तत्रोपबृहंणम् । ऊर्ध्वमूर्ध्वगुणश्रेण्यां निर्जरायाः सुसम्भवात् ॥ १५४९ ॥
सूत्रार्थं अथवा बिना प्रयत्न के ही स्वतः उस सम्यग्दृष्टि में उपबृंहण सिद्ध है क्योंकि ऊपर-ऊपर गुणश्रेणी में निर्जरा की सम्भवता है ।
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अवश्यम्भाविनी चात्र निर्जरा कृत्स्नकर्मणाम् । यावदसंख्येयगुणक्रमात् ॥ १५५० ॥
प्रतिसूक्ष्मक्षणं
सूत्रार्थ और इस सम्यग्दृष्टि में सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा अवश्य होने वाली है क्योंकि हरएक सूक्ष्म समय में असंख्येयगुण क्रम से निर्जरा हो रही है।
न्यायादायातमेतद्वै यावतांशेन तत्क्षतिः ।
वृद्धिः शुद्धोपयोवास्य वृद्धेर्वृद्धिः पुनः पुनः ॥ १५५१ ।।
सूत्रार्थ - न्याय से वास्तव में यह बात आई कि जितने अंश से उस कर्म का नाश है (उतने अंश से ) शुद्धोपयोग की वृद्धि है और फिर वृद्धि की वृद्धि पुनः पुनः है।
भावार्थ - आगम में बताया है कि सम्यग्दृष्टि के हर समय नियमानुसार सत्ता में पड़े हुए कर्मों की निर्जरा होती रहती है। उसी प्रकार उदय में भी अभाव होता रहता है और तद्नुसार भी उसकी रत्नत्रय की वृद्धि स्वतः हर समय होती रहती है। इस प्रकार उसके स्वत: उपबृंहणगुण सिद्ध है। अब बताते हैं कि आत्मशुद्धि की वृद्धि और इन्द्रिय विषयों की इच्छा की कमी का अविनाभाव है.
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यथा यथा विशुद्धेः स्याद् बृद्धिरन्तः प्रकाशिनी । तथा तथा हृषीकाणामुपेक्षा विषयेष्वपि ॥ १५५२ ॥
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सूत्रार्थ - जैसे-जैसे विशुद्धि की अन्तरंग में प्रकाश होने वाली वृद्धि होती है वैसे-वैसे ही इन्द्रियों के विषयों में भी उपेक्षा ( की वृद्धि ) होती जाती है।
ततो भूम्नि क्रियाकाण्डे नात्मशक्ति स लोपयेत् ।
किन्तु संवर्धयेन्जूनं प्रयत्नादपि दृष्टिमान् ॥ १५५३ ॥
सूत्रार्थ - इसलिये वह बड़े भारी क्रियाकाण्ड में भी अपनी शक्ति को नहीं लोफ्ता किन्तु सम्यग्दृष्टि निश्चय से प्रयत्न से भी बढ़ाता है। किन्तु उसमें उसकी उपादेय बुद्धि नहीं होती न उससे लाभ मानता है। केवल जबतक ऊपर की भूमि में नहीं पहुँचा है। तबतक कदाचित् अशुभ से बचने के लिये प्रयत्न भी करता है ( श्री पंचास्तिकाय गा. १३६ टीका ) |
उपबृंहणनामापि गुणः सद्दर्शनस्य यः ।
गणितो गणनामध्ये गुणानां नागुणाय च ॥ १५५४ ॥
सूत्रार्थ - इस प्रकार जो सम्यग्दर्शन का उपबृंहण नामा गुण है। वह भी गुणों की गणना में गिना हुआ अगुण (दोष) के लिये नहीं है (क्योंकि वह सम्यग्दृष्टि के अविनाभाव से होता ही है )।