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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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आत्मशुद्धेरदौर्बल्यकरण
चोपबृंहणम् । अर्थाद् दज्ञप्तिचारित्रभावादस्खलितं हि तत् १५४४ ॥ सूत्रार्थ - आत्मा शुद्धि की दुर्बलता नहीं करना उपबृंहण हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र भाव से स्खलित नहीं होना ही वह उपबृहण है। अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि पर की वृद्धि का इच्छुक नहीं है।
जालन्जप्येष नि:शेषात्पौरुषं प्रेरयन्नित
तथापि यत्नवान्नात्र पौरुषं प्रेरयन्जिन ||१५४५॥ सूत्रार्थ -[एषः ] यह सम्यग्दृष्टि (निःशेषात् जानन् अपि] सम्पूर्ण पर पदार्थों को जानता हुआ भी [ पौरुषं प्रेरयन् इव] बाहर से ऐसा मालूम पड़ता है कि वह उन पर पदार्थों के बढ़ाने का पुरुषार्थ कर रहा है [ तथापि] तो भी वह [पौरुषं प्रेरयन् इव] जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि उनकी वृद्धि के लिये पुरुषार्थ करता है। उस प्रकार [ अत्र ] इन पर पदार्थों में [ यत्नवान् न अस्ति ] पुरुषार्थी नहीं है।
भावार्थ - हमारे विचार से इस मूलसूत्र में कुछ अशुद्धि है। पं. फूलचन्द कृत टीका में हमें ऐसा मालुम पड़ता है कि उन्होंने अपनी इच्छानुसार शुद्ध कर लिया है किन्तु वह और अशुद्ध हो गया है प्रकरण विरुद्ध हो गया है तथा अर्थ भी गलत हो गया है। पं. देवकीनन्दनजी ने अर्थ ही छोड़ दिया है। पं. मखनलाल कृत टीका का मूलसूत्र तथा मूलमात्र संस्कृत पञ्चाध्यायी का पाठ इसी प्रकार मिलता है। उसके अनुसार हमने लिखा है। जहाँ तक हमसे बना है पूर्व अपर अनुसन्धान देखकर अर्थ लिखा है किन्तु मन हमारा पाठ अशुद्धि के भय के संदिग्ध है। ऊपर प्रकरण यह चला आ रहा है कि सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की वृद्धि का ही पुरुषार्थ करता है यह उसका उपबृंहण गुण है। अब कोई कहे कि सम्यग्दष्टि तो पर की वृद्धि का भी पुरुषार्थ करता देखा जाता है तो कहते हैं कि जिस समय सम्यग्दृष्टि स्वात्मानुभूति की उपयोग दशा में नहीं होता, उस समय पर में प्रवृत्त जरूर होता है। बाहर से ऐसा दीखता है कि वह व्यापार इत्यादिक करता हुआ पर की वृद्धि का पुरुषार्थ कर रहा है किन्तु आचार्य कहते हैं कि वास्तविक बात यह है कि मिथ्यादृष्टि की तो यह मान्यता है कि मैं पर को बढ़ा सकता है। अत: वह तो पर को बढ़ाने का संकल्प अवश्य करता है। बढ़ा तो वह भी नहीं सकता पर संकल्प और श्रद्धा के कारण उनका बढ़ाने वाला (कता ) कहा जाता है। ज्ञानी की यह श्रद्धा है कि पर का स्वतन्त्र परिणमन है तथा उसकी वृद्धि, हानि कर्माधीन है। अतः वह भूमिकानुसार परपदार्थों के लिए रागादिभाव को करता हुआ जरूर दीखता है किन्तु वास्तव में तो वह सब पर पदार्थों से उपेक्षित है। मात्र उनका ज्ञाता ही है। अब यह कहते हैं कि पर की वृद्धिका पुरुषार्थ नहीं करता इतना ही नहीं किन्तु उस समय भी उसका अन्तरंग पुरुषार्थ तो शुद्धोपलब्धि की वृद्धि में ही कार्य करता है।
नायं शुद्धोपलब्धौ स्याल्लेशतोऽपि प्रमादवान् ।
जिष्णमादतयात्मानमाददानः रामादरात् ॥ १५४६॥ सूत्रार्थ - ( उस समय भी ) यह शुद्धोपलब्धि में लेशमात्र से भी प्रमादवान् नहीं होता किन्तु प्रमादरहितपने से आत्मा आदर से ग्रहण करता हुआ है अर्थात् उस समय भी अन्तरंग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की वृद्धि ही कर रहा है।
यद्वा शुद्धोपलन्धयर्थमभ्यस्येदपि तद्वहिः ।।
सकियां काञ्चिदप्यर्थात्तत्तत्साध्योपयोगिनीं ॥ १५४७ ।। सूत्रार्थ - अथवा शुद्धोपलब्धि के लिये उस बहिरंग (शास्त्र स्वाध्याय आदि) को भी अभ्यास करता है और उस साध्य की उपयोगी किसी-किसी शुभ क्रिया को भी करता है अर्थात् व्यवहार धर्म को भी शुद्धि की वृद्धि का लक्ष्य रखते हुए पालता है।
स्रोन्द्र सेवमानोऽपि कोऽपि पथ्यं न वाचरेत् ।
आत्मनोऽनुरूलाघतामुज्झन्नुल्लाघतामपि ॥ १५४८॥ सुत्रार्थ - रसायन (पारे के भस्म आदि)को सेवन करने वाला कोई भी यदि पथ्य सेवन न करे तो अपनी सरोगता को खोता हुआ नीरोगता को भी खो देता है।