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अमूढ़ दृष्टि अंग का उपसंहार
देवे गुरौ तथा धर्मे दृष्टिस्तत्वार्थदर्शिनी ।
ख्याताप्यमूठदृष्टिः स्यादन्यथा मूठदृष्टिला ॥ १५४१ ॥
सूत्रार्थ - देव में गुरु में तथा धर्म में तत्त्वार्थ को यथार्थरूप से देखने वाली जो दृष्टि है वह अमूढदृष्टि कही गई है। अन्यथा मूढदृष्टिपना है।
सम्यक्त्वगुणोऽप्येष नाल दोषाय लक्षितः ।
सम्यग्दृष्टिर्यतोऽवश्यं तथा स्यान्न तथेतरः || १५४२ ॥
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सूत्रार्थं सम्यक्त्व का यह लक्षण किया गया गुण-दोष के लिये नहीं है क्योंकि सम्यग्दृष्टि वैसा ( अमूह्रदृष्टि ) अवश्य होता है तथा दूसरा ( मिथ्यादृष्टि ) वैसा ( अमूढदृष्टि ) नहीं होता ।
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
श्री समयसारजी में कहा है
जोहड़
को सेवा कहिडि अालेसु ।
सो खलु अमूहदिडी समादिट्ठी मुणेयव्तो ॥ २३२ ॥
सूत्रार्थ - जो चेतयिता सब भावों में अमूढ़ है - यथार्थं दृष्टिवाला है, उसको निश्चय से अमूढदृष्टि सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयता के कारण, सभी भावों में मोह का अभाव होने से, अमूढदृष्टि है।
श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है
लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे ।
नित्यमपि तत्त्वरुचिता कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥ २६ ॥
सूत्रार्थ - लोकाचार में, शास्त्राभास में, धर्माभास में, देवताभास में, तत्त्वों में रुचि रखने वाले पुरुष द्वारा सदा अमूदृष्टिपना किया जाना चाहिये। लोकमूढ़ता को लोकाचार कहते हैं, अन्यमत के शास्त्रों को शास्त्राभास कहते हैं, अन्य धर्मों को धर्माभास कहते हैं, अन्य देवताओं को देवताभास कहते हैं। इनकी श्रद्धा का न होना तथा सच्चे देव, गुरु धर्म की श्रद्धा होना अमूढदृष्टित्व है।
श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है
कापथे पथि दुखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असम्पृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढादृष्टिरुच्यते
॥ १४ ॥
सूत्रार्थ - दुःखों के स्थानभूत खोटे मार्ग में तथा खोटे मार्ग में स्थित पुरुषों में मन से सम्मत नहीं होता, काया से अनुमोदना नहीं करना वचन से प्रशंसा नहीं करना, अमूरदृष्टि अंग कहा जाता है।
श्री अमितगति श्रावकाचार में कहा है।
देवधर्मसमयेषु मूढता यस्य नास्ति हृदये कदाचन । चित्रदोषकलितेषु सन्मतेः सोच्यते स्फुटममूढदृष्टिकः ॥ ७६ ॥
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सूत्रार्थ नाना प्रकार दोषनकरि व्याप्त जे देव अर धर्म अर समय कहिये सर्वमत इन विषै सुबुद्धि के हृदय विषै कदाचित् मूढता कहिये मूर्खता नहीं है सो अमूढदृष्टि कहिये है अर्थात् देवपने के आभास धरें ऐसे हरिहरादिक अर धर्माभास यज्ञादिक अर समयाभास वैष्णवमत आदिक इन विषै ये भी देवादिक हैं ऐसी मूढ़ता का अभाव सो अभूदृष्टि
जानना।
नववां अवान्तर अधिकार
उपबृंहृण अंग सूत्र १५४३ से १५५४ तक १२
उपबृंहणनामास्ति गुणः सम्यद्गात्मनः । लक्षणादात्मशक्तीनामवश्यं बृंहणादिह ॥ १५४३ ॥
सूत्रार्थं - उपबृंहण नामा गुण भी सम्यग्दृष्टि आत्मा का है। जो आत्म शक्तियों के अवश्य बढ़ाने रूप लक्षण से प्रसिद्ध है। अर्थात् अस्ति से उपबृंहण सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चरित्र के बढ़ाने को कहते हैं और नास्ति से उपगूहन अंग कहते हैं ।