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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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किंच सद्दर्शनं हेतुः संविच्चारित्रयोद्धयोः ।।
सम्यग्तिशेषणस्योच्चैर्यद्वा प्रत्यग्रजन्मनः ॥ १५३५ ॥ सूत्रार्थ - और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र दोनों का कारण है अथवा यह सम्यग्दर्शन ही आगे उत्पन्न होने वाले ज्ञान और चारित्र के सम्यक् विशेषण का मूल कारण है।
अर्थोऽयं सति सम्यक्त्वे ज्ञानं चारित्रमात्र यत् ।
भूत्पूर्व भवेत् सम्यक सूते वाभूतपूर्वकम् ।। १५३५॥ सूत्रार्थ - अर्थ (भाव) यह है कि सम्यक्त्व के होने पर यहाँ जो भूतपूर्व ज्ञान और चारित्र हैं वे सम्यक्हो जाते हैं अथवा ( यह सम्यग्दर्शन) अभूतपूर्वक ( जो पहले नहीं था ऐसे ज्ञान और चारित्र को) जन्म देता है।
शुद्धोपलब्धिशक्तिर्या लब्धिानातिशायिनी ।
सा भवेत्सलि सम्यक्त्वे शुद्धो भावोऽथवापि च ॥ १५३६ ॥ सत्रार्थ - जो ज्ञान में अतिशय लाने वाली शद्धोपलब्धि की शक्तिरूपलब्धि है वह सम्यक्त्व के होने पर ही होती है अथवा शुद्ध भाव भी सम्यक्त्व के होने पर ही होता है। अर्थात् उपयोग रूप ज्ञान चेतना या लब्धिरूप स्वात्मानुभूति सम्यक्त्व के होने पर ही उत्पन्न होती है।
खास सूत्र यत्युनद्रव्यचारित्रं शुतज्ञानं विनापि दृक ।
न त न चानिमित्त लनाकृत !१५३७ ॥ सूत्रार्थ - और जो सम्यग्दर्शन के बिना द्रव्य चारित्र ( व्यवहार चारित्र) तथा (शब्द) श्रुत ज्ञान होता है। वह न तो ज्ञान है न चारित्र है। यदि है तो कर्म बन्ध के करने वाला है। द्रव्यलिंगी का ग्यारह अंग तक के अभ्यास और निर्दोष मुनिवत पालन को मात्र बन्ध का कारण कहा है।
तेषामन्यतमोद्देशो नास्ति टोषाय जातुचित् ।
मोक्षमागैकसाध्यस्य साधकानो रमतेरपि ॥ १५३८॥ सूत्रार्थ - उन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में से किसी एक का कथन कदापि दोष के लिये नहीं है क्योंकि मोक्षमार्ग रूप एक साथ्य के तीनों साधक माने गये हैं।
धर्म तत्व का सार बन्धो मोक्षश्च ज्ञातव्यः समासात्पश्नकोविटैः ।
रागांशैर्बन्ध एव स्यान्नारागांशैः कदाचन ॥ १५३९ ।। सूत्रार्थ - प्रश्न करने में चतुरों के द्वारा संक्षेप से बन्ध मोक्ष इतना ही जान लेना चाहिये कि राग-अंशों से बन्ध ही होता है और अराग-अंशों से कभी भी बन्ध नहीं होता है।
श्रीपुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है येनाशेन सुदृष्टिस्तेनांशेलास्य बन्धन जास्ति ।
येलांशेन तु रावास्तेनांशेजास्य बन्धनं भवति ॥ २१२ से २१४ ॥ सूत्रार्थ -जिस अंश से सम्यग्दर्शन(तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र) है उस अंश से इसके बंधन नहीं है किन्तु जिस अंश से राग है उस अंश से इसके बन्धन होता है।
उक्तो धर्मस्वरूपोऽपि प्रसंगात्संगतोंशतः ।
कविलब्धावकाशस्तं विस्तराद्वा करिष्यति || १५४०॥ सवार्थ - प्रसंग से सुसंगत होने से अंश रूप से ( संक्षेप से धर्म का स्वरूप भी कहा अथवा समय प्राप्त होने पर कवि उस (धर्म के स्वरूप)को विस्त र्वक कहेगा।