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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
सूत्रार्थ - इस प्रकार पुण्य और पाप में अन्तर नहीं है। ऐसा जो नहीं मानता है वह मोहाच्छादित वर्तता हुआ घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है।
श्रीसमयसारजी मैं कहा है अज्ञानी की मान्यता - पुण्यकर्म अच्छा है, पापकर्म बुरा हैं
पारपाई कुशील है सजा की मान्यता । पुण्य कर्म सुशील है, है सब जगत की मान्यता ॥
खण्डन - पुण्य पाप एक ही है गुरु कहते कैसे सुशील वो संसार मैं दाखिल करें। हैं कर्म दोनों एक ही चाण्डालनी के पुत्र हैं ॥ १५४॥
शुभ मोक्ष का कारण नहीं है। विद्धजनों भूतार्थ तज व्यवहार से वर्तन करें । पर कर्म क्षय का विधान तो परमार्थ आश्रित सन्त के ।। व्यवहार और निमित्त के कथनों में लुटता जगत् है । रे ज्ञानी! इससे चेत होकर जान तू भूतार्थ से ॥१५६॥ कर्मादानक्रियारोधः स्वरूपाचरणं च यत् ।
धर्मःशुद्धोपयोगः स्यात् सैष चारित्रसंज्ञकः ॥ १५३१॥ सूत्रार्थ - जो कर्मों को ग्रहण करने वाली किया का निरोध है ( राग-द्वेष-मोह का अभाव है )। वह स्वरूपाचरण है। वही धर्म है। वही शुद्धोपयोग है और वह यह चारित्र नाम से कहा जाता है।
____ श्री प्रवचनसार में कहा है। चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिहिट्ठो । मोहवरखोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥ ७॥
चारित्र है वह धर्म है, जो धर्म है वह साम्य है
अरु साम्य जिव का मोहक्षोभ विहीन निजपरिणाम है ॥७॥ सूत्रार्थ - चारित्र निश्चय से धर्म है, जो धर्म है वह साम्य है यह (शास्त्र में ) कहा है। साम्य मोहक्षोभरहित ऐसा ' आत्मा का परिणाम ( भाव) है। इसपर शिष्य शंका करता है।
शङ्का ननु सद्दर्शनज्ञानचारिमोक्षपद्धतिः ।
समस्तैरैव न व्यरतैस्तत्किं चारित्रमात्रया ॥ १५३२॥ शङ्का - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से मोक्ष पद्धति ( मार्ग) है। समस्तों से ही, व्यस्तों ( भिन्न-भिन्न) से नहीं तो फिर ऊपर चारित्रमात्र से ( मोक्षपद्धति ) कैसे ?
समाधान - सूत्र १५३३ से १५३८ तक ६ सत्यं सहर्शनं ज्ञान चारित्रान्तर्गतं मिथः ।
प्रयाणामविनाभावादिदं त्रयमरवण्डितम् ॥१५३३॥ सन्त्रार्थ - ठीक है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, चारित्र के अन्तर्गत हैं। तीनों के परस्पर अविनाभाव से ये तीनों अखण्डित हैं।