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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक ४०५ सत्सु रानाटिभावेषु बन्धः स्यात्कर्मणां बलात् । तत्पाकादात्मनो दुःखं तत्सिद्धः स्वात्मनो बधः || १५२४॥ रागादि भावों के होने पर बलात(निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से बस्त स्वभाव से स्वतः) कर्मों का बंध होता है और उन कर्मों के उदय से आत्मा के दःख होता है इसलिये ( रागादि भावों के द्वारा) आत्मा का बंध सिद्ध होता है। तत: शुद्धोपयोगो यो मोहकर्मोटयाऋते । चारित्रापरनामैतद ततं निश्चयतः परम् ॥ १५२५॥ सूत्रार्थ - इसलिये मोह कर्म के उदय के बिना जो शुद्धोपयोग है वही चारित्र नाम से है। और यह ही निश्चय से उत्कृष्ट व्रत है। चारित्रं लिर्जराहेतुायादप्यरत्यबाधितम् । सर्वस्वार्थक्रियामहत् सार्थनामास्ति दीपवत् ।। १५२६ ॥ सूत्रार्थ - चारित्र निर्जरा का कारण है। यह बात न्याय से भी अबाधित है। (क्योंकि वह चारित्र) सम्पूर्ण अपनी अर्थ क्रिया में समर्थ होता हआसार्थक नाम वाला है दीपक की तरह। रूळेः शुभोपयोगोऽपि ख्यातश्चारित्रसंज्ञया । स्वार्थक्रियामकर्वाण: सार्थनामा न निश्चयात ॥ १५२७॥ सत्रार्थ - रूद्धि से शभोपयोग भी चारित्र नाम से कहा गया है परन्तु निश्चय से अपनी प्रयोजनभूत किया को नहीं करता हुआ सार्थक नाम वाला नहीं है। भावार्थ - चारित्रकी स्वार्थक्रिया निर्जरा है और शुभोपयोग से वह नहीं होती है। अत: शुभोपयोग वास्तव में चारित्र नहीं किन्तु बन्धस्वरूप है। चारित्र का घातक है। किन्तु बन्धस्य हेतुः स्यादर्थात्तत्पत्यनीकवत् । नासौ वरं वरं यः स जापकारोपकारकृत् ॥ १५२८।। सूत्रार्थ - किन्तु वह शुभोपयोग बन्ध का कारण है वास्तव में वह विरोधिवत् है अशुभोपयोग की तरह चारित्र का घातक है। वह श्रेष्ठ नहीं है। वह श्रेष्ठ है जो न अपकार करता है और न उपकार करता है। भावार्थ - व्यवहार में अशुभोपयोग अपकार करने वाला माना जाता है और शुभोपयोग उपकार करने वाला माना जाता है किन्तु शद्धोपयोग की अपेक्षा वे दोनों बन्ध करने वाले होने के कारण चारित्र से विरोधी हैं। अतः श्रेष्ठ ( उपादेय) नहीं है। विरुद्धकार्यकारित्वं नास्तासिद्ध विचारसात् । बन्धस्यैकान्ततो हेतोः शुद्धादन्यत्र सम्भवात ॥ १५२९ ।। सूत्रार्थ - विचार करने से इस शुभोपयोग के विरुद्ध कार्यकारित्व असिद्ध नहीं है क्योंकि यह एकान्त रूप से (सर्वथा)बन्धका कारण है और वह भी इस कारण से कि इसमें शुद्ध से अन्यपना ( भिन्नताअशद्धता) पाया जाता है। लोहां प्रज्ञापराधत्वान्निर्जरा हेतुरंशतः । अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहः || १५३० ।। सूत्रार्थ - बुद्धि के अपराधपने (मन्दता) से यह भी नहीं विचार करना चाहिये कि शुभोपयोग अंश रूप से निर्जरा का कारण है। चाहे शुभ हो चाहे अशुभ रूप हो - दोनों अबन्ध के कारण नहीं हैं अर्थात् बन्ध के कारण हैं। श्रीप्रवचनसारजी में कहा है ण हि मण्णदि जो एवं णस्थि विसेसो तिपुण्णपावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं महोसंछपणो ॥ ७७ ॥ नहीं मानता - इस रीत एण्य और पाप में न विशेष है। वो मोह से आछन्न घोर अपार संसारे भमे ॥ ७७॥
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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