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________________ ४०० ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी सर्वतो तिरतिस्तेषां हिंसाटीना व्रतं महत् ।। नैतत् सागारिभिः कर्तुं शक्यते लिंगामर्हताम् ॥ १५८९।। सूत्रार्थ - उन हिंसादिकों का सर्वदेश से त्याग करना महाव्रत कहलाता है और यह (महाव्रत) गृहस्थों के द्वारा किया जाना शक्य नहीं है क्योंकि यह ( मुनि लिंग ) अरहन्तों का लिंग है ( श्री पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक नं. १६ तथा इसी ग्रन्थ का नं. १३८९, १३९० ।। मूलोत्तरगुणाः सन्ति देशतो वेश्मवर्तिनाम् । तथानगारिणां न स्युः सर्वतः स्युः परेऽथ ते ॥ १४९० ।। सूत्रार्थ - जैसे गृहस्थों के एकदेशरूप से मूल और उत्तर गुण होते हैं वैसे मुनियों के एकदेशरूप से नहीं होते है किन्तु वे सर्वदेश रूप से ही होते हैं। ( भावार्थ आगे नं. १५११ तथा १५१२ में देखिये । धर्म का सामान्य स्वरूप समाप्त हुआ। गृहस्थ धर्म सूत्र १४९१ से १५१० तक २० तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां वतधारिणाम् । म्वचिदततिनां यरमात् सर्वसाधरणा इमे ॥ १४९५॥ सूत्रार्थ - वहाँ (सागर धर्म में व्रतधारी गृहस्थों के आठ मूल गुण हैं और कहीं-कहीं अव्रतियों के भी होते हैं क्योंकि ये सर्व साधारण हैं। निसर्गाद्वा कुलाजायादायातारले गुणाः स्फुटम् । . तद्विना न वतं यावत्सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् || १४९२ ॥ सूत्रार्थ - (गृहस्थों के) वे गुण प्रगट रूप से स्वभाव से ही होते हैं या कुलाम्नाय से आये हुए हैं। उस गुणाष्टक) के बिना प्राणियों के न सम्यक्त्व होता है तथा न कोई व्रत होता है। एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति लामतः । कि पुनः पाक्षिको गूढो नैष्ठिकः साधकोऽथवा ॥१४९३ ॥ सूत्रार्थ - इस (गुणाष्टक ) के बिना नाम (निक्षेप से भी यह श्रावक नहीं होता है। फिर पाक्षिक गूढ नैष्ठिक अथवा साधकश्रावक की तो बात ही क्या है। मटामांसमधुत्यागी त्यक्लोदुम्बरपञ्चक । नामतः श्रावकः रव्यातो नान्यथापि तथा गृही ।।१४९४ ॥ सूत्रार्थ - मद्य, मांस, मधु का त्यागी और छोड़ दिये हैं पाँच उदम्बर फल जिसने, वह नाम से प्रावक कहा गया है अन्यथा न श्रावक है और न गृहस्थी। यथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैर्व्यसनोज्झनम् । अवश्य तद्वतस्यैस्तैरिछद्भिः श्रेयसीक्रियाम् ॥ १४९५॥ सूत्रार्थ - गृहस्थों के द्वारा शक्ति-अनुसार व्यसन त्याग किया जाना चाहिये और कल्याणकारी क्रिया को चाहने वाले, उन व्रत में स्थित गृहस्थों के द्वारा तो अवश्य त्याग किये जाने चाहिये। त्यजेद्दोषांस्तु तनोक्लान् सूत्रेऽतीचारसंज्ञकान् । अन्यथा मामांसादीन श्रावकः कः समाचरेत् ||१४९६ ॥ सूत्रार्थ - टन ( आठ मूल गुणों) में सूत्र में अतीचारों के नाम से कहे हुए दोषों को भी छोड़े अन्यथा ( खालिस) मद्यमांसादिकों को कौन श्रावक खाता है (अर्थात् कोई नहीं)।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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