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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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दाल चतुर्विध देय पात्रबुद्धयाथ श्रद्धया ।
जघन्यमध्यमोत्कष्टपानेभ्यः श्रावकोत्तमैः ॥ १४९७| सुत्रार्थ - उत्तम श्रावकों के द्वारा जघन्य मध्यम उत्कृष्ट पात्रों के लिये पात्र बुद्धि से और श्रद्धा से चार प्रकार का दान दिया जाना चाहिये।
कपात्राचाप्यपात्राय दान देयं यथोचितम ।
पात्रबुद्धया निषिद्धं स्यानिषिद्ध ज कृपाधिया ॥ १४९८ ॥ सूत्रार्थ - कुपात्र के लिये और अपात्र के लिये भी यथोचित दान देने योग्य है। उनको पात्र बुद्धि से दान देने का निषेध किया गया है किन्तु कृपा बुद्धि से निषेध नहीं किया गया है।
शेधेभ्यः क्षुत्पिपासादिपीडितेभ्योऽशुभोदयात् ।
दीनेभ्योऽभयदानादि दातव्यं करुणार्णवैः ॥१४९९॥ सत्रार्थ - करुणा से भीगा हुआ है हृदय जिनका,उनके द्वारा,शेष जो अशभ उदय के कारण भूख-प्यास-आदि से पीड़ित हैं और दीन हैं उनके लिये भी अभयदानादि देना चाहिये।
पूजामप्यर्हतां कुर्याद् यद्वा प्रतिमासु तद्धिया ।
स्वरव्यजनानि संस्थाप्य सिद्धानप्यर्चयेसुधीः ॥4400॥ सूत्रार्थ - बुद्धिमान ( श्रावक) अरहन्तों की अथवा उन (अरहन्तों) की बुद्धि से ( उनकी) प्रतिमाओं में भी पूजा को करे। स्वर व्यजनों को भले प्रकार स्थापना करके सिद्धों को भी पूजें।
सूर्युगाध्यायसाधूना पुरस्तत्पदयोः स्तुतिम् ।
निधायाष्टधागून लिदगत्मविशन्टितः ॥ १५०१ ।। सूत्रार्थ - और वह आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के आगे उनके दोनों चरणों में स्तुति को पहले करके फिर आठ प्रकार की पूजा को त्रि(मन, वचन, काय) शुद्धि से करे। (ये पाँचों भगवान् कहलाते हैं। पाँचों पूजने योग्य हैं)।
सम्मालादि यथाशक्ति कर्तव्यं च सधर्मिणाम् ।
वतिलां चेतरेषां वा विशेषाद् ब्रह्मचारिणाम् || १५०२ ॥ सूत्रार्थ - और शक्ति-अनुसार ब्रती या दूसरे अवती सर्मियों का अथवा विशेषरूप से ब्रह्मचारियों का सम्मानादि करना चाहिये।
जारीभ्योऽपि वताळ्याभ्यो न निषिद्धं जिनागमे ।
देय सम्मानदानादि लोकानामविरुद्धतः ॥ १५०३।। सत्रार्थ - लोगों के अविरुद्धपने से (लोकाचार अविरुद्धपने से)प्रत में स्थित नारियों के लिये भी सम्मानदानादि देना जिनागम में निषिद्ध नहीं है।
जिनचैत्यगृहादीना निर्माणे सावधानता ।
__ यथा सम्पद्विधेयारित दूष्या नावद्यलेशतः ॥ १५०४॥ ___ सूत्रार्थ - जिन मन्दिर आदि
सूत्राथ - जिन मन्दिर आदि की रचना में सम्पत्ति के अनुसार सावधानता रखनी चाहिये। इसके बनवाने में पाप के लेश से दोष नहीं है।
सिद्धानामर्हताचापि यन्त्राणि प्रतिमाः शुभाः । ____चैल्यालयेषु संस्थाप्य द्रा प्रतिष्ठापयेत् सुधीः ॥ १५०५ ।। सूत्रार्थ - बुद्धिमान सिद्धों के और अरहन्तों के भी सुन्दर यन्त्र, प्रतिमा चैत्यालयों में स्थापना करके तुरन्त प्रतिष्ठा करावें।
अथ तीर्थादियानासु विटध्यात सोटातं मनः ।
श्रावकः स च तचापि संयम न विराधयेत् ॥१५०६॥ सूत्रार्थ - और श्रावक तीर्थ आदि की यात्राओं में उद्यत मन करे और वह वहाँ भी संयम को न बिराधे।