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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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मुनि होता है और फिर श्रेणी चढ़ता है। उसने कोई पाप थोड़े ही किया है जिसका प्रायश्चित्त ले। वे तो आचार्य पद में रहते हए जिस किसी समय भी समाधि में लीन होकर श्रेणी चढ़ते हैं उस समय स्वयं उनकी मनि संज्ञा हो जाती है। इसी कारण से आगम तथा लोक में यह प्रसिद्ध है कि आचार्य पद से मुक्ति नहीं है। मुनिपद से मुक्ति है। किन्तु इसका यह भाव कदापि नहीं कि आचार्य उपाध्याय का दर्जा मुनियों से कुछ कम है। कम अधिक का प्रश्न ही गलत है। वे तो तीनों मोक्षमार्गी मुनि कुञ्जर हैं। और तीनों समान रूप से गुरु हैं।
धर्म का सामान्य स्वरूप सूत्र १४८३ से १४९० तक ८ भो नीचैः पटादुत्त्रैः पदे धरति शर्मिकम् ।
तनाजवजवो नीचैः पटमुच्चैस्तदत्ययः ॥१४८३॥ सूत्रार्थ - जो धर्मात्मा को नीच पद से उच्च पद में धरता है वह धर्म है। उस (नीच और ऊँच पद) में संसार नीचपद है तथा उस ( संसार) का नाश ( मोक्ष) उच्च पद है ( श्रीरत्नकरण्ड-श्रावकाचार नं.२)
स धर्म सम्यग्दृग्ज्ञप्तिचारित्रत्रितयात्मकः ।
तत्र सदर्शन मूलं हेतुरद्वैतमेतयोः ॥ १४८४ ॥ सूत्रार्थ - वह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तीन स्वरूप है। उन तीनों में सम्यग्दर्शन इन दोनों (सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) का एक मूल कारण है। इसके बिना शेष दो नहीं होते। दंसणमूलो धम्मो।
ततः साताररूपो वा धर्मोनगार एव वा ।
। सदृकपुररसरो धर्मो न धर्मस्तद्विजा क्वचित् ॥ १४८५॥ सूत्रार्थ - इसलिये सागाररूप अथवा अनगाररूप जो भी धर्म है वह सब सम्यग्दर्शन पूर्वक ही धर्म है और उस (सम्यग्दर्शन) के बिना कहीं भी धर्म नहीं है।
रूढितोऽधिवपुर्वाचा क्रिया धर्मः शुभावहा ।
तत्रानुकूलरूपा वा मनोवृत्तिः सहानया 11 १४८६॥ सूत्रार्थ - शरीर की और वचनों की शुभरूप क्रिया अधवा उस क्रिया में उसके साथ अनुकूलरूप मन की प्रवृत्ति रूढ़ि से धर्म कहलाता है।
भावार्थ - शरीर की शुभ क्रियाओं का पालना और वचन से धर्मोपदेशादि देना और तदनुसार मन का विकल्प व्यवहार से धर्म कहलाता है अर्थात आरोप से धर्म कहलाता है ऐसी आगम की और लोक की रूचि है। वास्तविक बात तो यह है कि शरीर और वचन की क्रिया तो स्वतन्त्र परद्रव्य की क्रिया है वह आत्मा के आधीन नहीं है, ऐसा ज्ञानी धर्मात्मा जानते हैं। और मन का विकल्प शुभ भाव है, पुण्य बंध का कारण है, आस्रव तत्व है, जहर है ( श्रीसमयसार गाथा ३०६)ऐसा भी ज्ञानी जानते हैं। वे आरोपित कथनों में कथन के अनुसार अर्थ नहीं समझते किन्तु वस्तु स्वरूप के अनुसार अर्थ समझते हैं। धर्म तो जितना आत्मा में मोह और क्षोभ से रहित शुद्ध भाव है, बस उतने अंश में धर्म है शेष सब अधर्म है ऐसा ज्ञानी को ठोक बजाकर अनुभव पूर्वक निश्चय है। (श्रीप्रवचनसार गाथा ७ तथा श्री पुरुषार्थसिद्धि नं. २१२, २१३, २१४) पहले उस रूढ़ि धर्म का ही सविस्तार वर्णन करते हैं -
सा द्विधा सर्वसागारानगाराणां विशेषतः ।
यतः क्रिया विशेषत्वान्जूने धर्मो विशेषितः ।। १४८७॥ सुत्रार्थ- वह क्रिया सब गृहस्थ और सब मुनियों की विशेषता से दो प्रकार की है क्योंकि निश्चय से क्रिया के विशेषपने से ही विशेष रूप धर्म है।
तत्र हिंसातस्तेयाबहाकृत्स्नपरिग्रहात् ।
देशतो विरति: प्रोवत गृहस्थानामणुवतम् ॥ १४८८॥ सूत्रार्थ - उनमें (सागर और अनगार दोनों प्रकार के धर्मों में) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और सम्पूर्ण परिग्रह से - एकदेश विरक्त होना गृहस्थों का अणुवत कहा गया है। यह गृहस्थ का मूल धर्म है। सम्यक्त्वसहित ५ पाप के एकदेश त्याग बिना श्रावकधर्म नहीं होता (श्रीरलकरंड श्रावकाचार ६६)।