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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
समाधान सूत्र १४७१ से १४७३ तक ३ नैवमर्थातः सर्व वस्त्वकिंचित्करे बहिः ।
तत्पट फलवन्मोहादिच्छतोऽर्थान्तरं परम ॥१४७१॥
सा नहीं है क्योंकि वास्तव में सम्पर्ण बाह्य वस्त अकिंचित्कर है किन्त मोह से पर को चाहने वाले के वह पर वस्तु और वह आचार्य पद फलवान् है अर्थात् कर्मबंध में निमित्त हो जाता है।
किं पुनर्गणिनस्तस्य सर्वतोऽनिच्छतो बहिः ।
धर्माटेशोपदेशादि स्वपटं तत्फलं च यत् ॥ १४७२ ।। सूत्रार्थ - धर्म का आदेश और धर्म का उपदेश (दीक्षा देना)आदि अपना आचार्य पद, और उसका जो फल मानादि इस प्रकार सब प्रकार से बहिर को नहीं चाहने वाले उस आचार्य की तो बात ही क्या है ? (अर्थात् आचार्यों को तो किसी पर वस्तु में मोह होता ही नहीं है)।
जास्यासिद्धं निरीहत्वं धर्मादेशादिकर्मणि ।
न्यायाटक्षार्थकांक्षाया ईहा जान्या जातुचित् ॥ १४७३॥ सूत्रार्थ - इस आचार्य के धर्मादेशादि क्रिया में निरिच्छापना असिद्ध नहीं है क्योंकि न्याय से इन्द्रिय विषय की अभिलाषा से ही इच्छा है। अन्य पदार्थ में कभी भी इच्छा नहीं मानी जाती है।
शंका ननु नेहा विना कर्म कर्म नेहां विना क्वचित् ।
तरमालानीहितं कर्म स्याटक्षार्थस्तु वा न वा ॥ १४७४ || शंका-कहीं पर भी क्रिया के बिना इच्छा नहीं होती और इच्छा के बिना क्रिया नहीं होती। इसलिये अनिच्छित क्रिया होती ही नहीं है चाहे इन्द्रिय विषय की हो या अन्य किसी कार्य की हो ऐसा शिष्य कहता है।
सभाधान सूत्र १४७५ से १४८१ तक ७ नैवं हेतोरतिव्याप्तेरारादाक्षीणमोहिषु ।
बन्धस्य नित्यतापत्तेर्भवेन्मुक्तेरसंभवः ॥ १४७५ ।। सूत्रार्थ - ऐसा नहीं है क्योंकि क्षीण कषाय और उसके आसपास के गुणस्थानों में हेतु की अतिव्याप्ति के कारण बन्ध की नित्यता आ पड़ने से मुक्ति की असंभवता है।
भावार्थ - इच्छा के बिना क्रिया के न मानने से क्षीणकषाय और उसके समीप के गुणस्थानों में अर्थात् १०,११, १२,१३ गुणस्थान में अनिच्छापूर्वक क्रिया के पाये जाने के कारण उक्त लक्षण में अतिव्याप्ति नाम का दोष आता हैं। और यदि उक्त गुणस्थानों में भी किया के सद्भाव से इच्छा का सद्भाव माना जायेगा तो बन्थ के नित्यत्व का प्रसंग आने से मुक्ति की असंभवता हो जायेगी।
ततोऽस्त्यन्त:कृलो भेदः शुढे नांशतस्त्रिषु ।
निर्विशेषात्समरत्वेष पक्षो माभूबहिः कृतः ॥ १४७६ ।। सुत्रार्थ- इसलिये (यद्यपि)तीनों में शद्धि के नाना अंश से अंतरंगकृत भेद पाया जाता है ( परन्त) सामान्यरूप से तीनों ही समान हैं किन्तु बाह्य क्रिया कृत भेद हैं यह पक्ष न होवे।
किंचास्ति यौगिकी रूढिः प्रसिद्भा परमागमे ।
विना साधुपदं न स्यात्केवलोत्पत्तिरंजसा ॥१४७७॥ सूत्रार्थ - और परमागम में यह अन्वर्थ रूढि प्रसिद्ध है कि वास्तव में साधु पद के ( ग्रहण किये)बिना (किसी को भी) केवलज्ञान की उत्पनि नहीं होती है।
तत्रचोक्तमिट सम्यक साक्षात् सर्वार्थसाक्षिणा ।
क्षणमस्ति रखतः श्रेण्यामधिरूढस्य तत्पदम् ॥ १४७८ ॥ सत्रार्थ - तथा उस परमागम में प्रत्यक्षरूप से सम्पर्ण पदार्थों को जानने-देखने वाले (सर्वजदेव) के
दार्थों को जानने-देखने वाले (सर्वज्ञदेव) के द्वारा यह ठीक कहा गया है कि श्रेणी में चढ़ने वाले के क्षण भर में वह साधु पद स्वयं हो जाता है।