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________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अथ सूरिसपाध्यायां द्वावेतो हेतुतः समौ । साध साधरिवात्मजौ शन्दौ शदोपयोगिनी || १४|| सूत्रार्थ - आचार्य उपाध्याय ये दोनों हेतुपूर्वक समान हैं, साधु हैं, और साधु की तरह आत्मज्ञानी हैं, शुद्ध हैं और शुद्धोपयोगी हैं। नापि कश्चिद्विशेषोऽस्ति तयोरतरतमो मिथः । नैताभ्यामन्तरुत्कर्षः साधोरप्यतिशायनात ॥१४६३॥ सूत्रार्थ - उन दोनों में ( आचार्य उपाध्याय में ) तरतम रूप से आपस में कोई विशेष नहीं है। और इन दोनों से साधु का असरुत्कर्ष अतिशयपने से नहीं है। लेशतोऽस्ति विशेषश्चेन्मियस्तेषां बहिःकृतः । का क्षतिमूलहेतोः स्यादन्तःशुद्धेः समत्वतः ॥ १५६५ ।। सूत्रार्थ - यदि उनके आपस में लेशमात्र भी विशेष है तो बहिर्वस्तु कृत क्योंकि मूल कारण से ( कर्म अनुदय से) होने वाली शुद्धि की समानता होने से बहिरंग क्रिया वा बहिरंग वस्तु से चारित्र की क्या क्षति हो सकती है? नास्त्या नियतः कश्चिद्युक्तिस्वानुभवागमात् ।। मन्दादिरुदयस्तेषां सूर्युपाध्यायसाधुषु || १५६५ ।। सूत्रार्थ - उन आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में युक्ति, स्वानुभव और आगम से उन संचलन कषाय के स्पर्द्धकों का कोई मन्द आदि उदय नियत नहीं है। प्रत्येकं बहतः सन्ति सूर्युपाध्यायसाधतः । जघन्यमध्यमोत्कृष्टभावैश्चैकैकशः पृथक् ॥ १४६६ ॥ सूत्रार्थ - आचार्य-उपाध्याय-साधु हर एक बहुत हैं क्योंकि जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भावों के द्वारा वे एक-एक करके भिन्न-भिन्न हैं। कश्चित्सूरिः कदाचिद्वै विशुद्धिं परमां गतः ।। मध्यर्मा वा जघन्यां वा विशद्धिं पनराश्रयेत || १४६७॥ सूत्रार्थ - कोई आचार्य निश्चय से किसी समय परम विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ फिर मध्यम अथवा जघन्य विशुद्धि को भी आश्रय करता है। हेतुस्तोदिता नानाभावांशैः स्पर्धकाः क्षणम् । धर्मादेशोपदेशाटि हेतु न बहिः क्वचित् || १४६८ ॥ सूत्रार्थ - उस (विशुद्धि के तरतमत्व) में प्रतिसमय नाना अविभाग प्रतिच्छेदों को लिये हुए उदय में आने वाले संचलन कषायों के स्पर्थक ही कारण हैं किन्तु वहाँ (आचार्य में) कहीं पर भी बाह्म धर्म आदेश और उपदेश आदि कारण नहीं है। परिपाटचालया योज्याः पाठकाः साधवरच ये । न विशेषो यतस्तेषां न्यायाच्छेषो विशेषभाका १vee|| सूत्रार्थ - जो उपाध्याय और साधु हैं वे भी इसी परिपाटी से योजना कर लेने चाहिये (जानने चाहिये) क्योंकि न्याय से उन( उपाध्याय और साधुओं) में आचार्य से विशेषता को धारण करने वाला कोई विशेष( अन्तर) शेष नहीं है। शंका जनु धर्मोपदेशादि कर्म तत्कारणं बहिः।। हेतोळ्यम्तरस्यापि बाह्य हेतुर्बहिः क्वचित् ।। १४७० ॥ शंका- धर्मोपदेश आदि बाह्य क्रियाउस (आचार्य ) की विशेषता में कारण है क्योंकि अभ्यन्तर हेतु की भी कहींकहीं पर बाह्य वस्तु बाह्य हेतु होती है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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