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द्वितीय खण्ड / पंचम पुस्तक
तेषां
तीवोदयस्तावदेतावानत्र बाधकः ।
सर्वतश्चेत्प्रकोपाय नापराधोऽपरोऽस्त्यतः ॥ १४५३ ॥
सूत्रार्थ उन संज्वल कषायों का जो तीव्र उदय है बस इतना मात्र इस शुद्धात्मानुभव में बाधक है। और वही सर्वथा प्रकोप के लिये (आत्म अतत्परता के लिये ) कारण है यदि ऐसा कहा जाय तो इससे और कोई बड़ा अपराध नहीं है। तेनात्रैतावता नूनं शुद्धस्यानुभवच्युतिः ।
अशक्यस्मादन्नास्त्यन्यः प्रयोजकः ॥ १४५४ ॥
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सूत्रार्थं - इसलिये इतना मात्र हेतु वास्तव में शुद्ध की अनुभव च्युति करने के लिए समर्थ नहीं है। क्योंकि यहाँ ( शुद्ध आत्मा के अनुभव से सर्वथा च्युत करने में ) अन्य (कर्म) कारण है। हेतुः शुद्धात्मनो ज्ञाने शमो मिथ्यात्वकर्मणः ।
प्रत्यनीकस्तु तत्रोच्चैरशमस्तस्य व्यत्ययात् ॥ १४५५ ॥
सूत्रार्थं - शुद्ध आत्मा के ज्ञान में (अनुभव में ) कारण मिध्यात्व कर्म का अनुदय है और उसमें वास्तविक बाधक तो मिथ्यात्व का शान्त न होना (उदय) है। क्योंकि उस मिध्यात्त्व का उदय होते ही उस शुद्धात्मानुभव का नाश हो जाता है।
३९५
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न
मोहे स्तंगते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत् ।
भवेद्विघ्नकरः कश्चिच्चारित्रावरणोदयः ॥ १४५६ ॥
सूत्रार्थं दर्शनमोह के अनुदय होने पर पुरुष के शुद्ध (आत्मा) का अनुभव होता है। (शुद्ध अनुभव में ) कोई भी चारित्रावरण का उदय विघ्न करने वाला नहीं होता ।
न
चाकिञ्चित्करश्चैवं
चारित्रावरणोदयः ।
दृमोहस्य कृते नालं अलं स्वस्य कृते च तत् ॥ १४५७ ॥
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सूत्रार्थ इस का आशय यह नहीं है कि चारित्रावरण का उदय अकिंचित्कर है। वह दर्शनमोह का कार्य करने में समर्थ नहीं है और वह अपने कार्य के करने में समर्थ है।
कार्यं चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः । नात्मदृष्टेस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत् ॥ १४५८ ॥
सूत्रार्थं चारित्रमोह का कार्य आत्मा की चारित्र से च्युति है किन्तु आत्मदृष्टि (श्रद्धा) से च्युति नहीं है क्योंकि वह दृष्टि है ( अर्थात् दृष्टि (श्रद्धा) गुण; चारित्र गुण से भिन्न है) न्याय से दूसरी आँख की तरह।
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भावार्थ - यदि एक आँख से दीखना बन्द हो जाय तो दूसरी से दीखना बन्द नहीं होता इसी प्रकार चारित्रावरण के उदय से चारित्र की च्युति है किन्तु दृष्टि की च्युति नहीं, दृष्टि की च्युति तो दर्शनमोह से है ।
यथा चक्षुः प्रसन्नं वै कस्यचिद्दैवयोगतः ।
इतरत्राक्षलापेऽपि दृष्टाध्यक्षान्न तत्क्षलिः ॥ १४५९ ॥
सूत्रार्थ जैसे किसी की दैवयोग से एक आँख बिल्कुल ठीक है। तो दूसरी आँख में दुःख होने पर भी उस आँख की हानि प्रत्यक्ष में नहीं देखी जाती है।
कषायाणामनुद्रेकश्चारिचं
तावदेव हि
नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मनः ॥ १४६० ॥
सूत्रार्थं जितना कषायों का अनुद्रेक (अनुदय ) है उतना ही वास्तव में चारित्र है। जितना कषायों का अनुद्रेक नहीं है उतनी आत्मा की चारित्र से च्युति है ।
ततस्तेषामनुद्रेकः स्यादुदेकोऽथवा स्वतः ।
लात्मदृष्टेः क्षतिर्नूनं दृङ्मोहस्योदाहृते ॥ १४६१ ॥
सूत्रार्थं उनका ( चारित्रावरण का ) अनुद्रेक या उद्रेक स्वतः होता है। इसलिये दर्शनमोह के उदय के बिना वास्तव में आत्मदृष्टि की क्षति नहीं है।