________________
३९४
ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
नवाचार्य: पशिदोऽरित टीक्षादेशाटगणागणीः ।
न्यायाद्वादेशतोऽध्यक्षात्सिद्धः स्वात्मनि तत्परः ॥१४॥ सूत्रार्थ - उन तीनों में आचार्य प्रसिद्ध है और दीक्षा तथा आदेश (आज्ञा) देने में गण (मुनि समूह) में अग्रेसर है। अपनी आत्मा में तत्पर ( स्थित ) है। यह न्याय से ( युक्ति से ), आदेश से (आगम से ) और अध्यक्ष से (स्वानुभव से) सिद्ध है।
अर्थान्नातत्परोऽप्येष दृडमोहानुदयात्सतः ।
अस्ति तेनाविनाभूतः शुद्धात्मानुभवः स्फुटम् ॥ १५४५ ॥ सूत्रार्थ - वास्तव में यह ( अपनी आत्मा में ) अतत्पर ( अस्थित) नहीं है क्योंकि दर्शनमोह के अनुदय का सद्भाव है। उससे (दर्शनमोह के अनुदय से) अविनाभावी शुद्धात्मानुभव स्पष्टतया पाया जाता है।
अप्यरित देशतरसन्न चारित्रावरणक्षतिः । न्यायाति के
केतकरशारदलितमातिः ॥ १५४६।। सूत्रार्थ - और उस शुद्ध आत्म अनुभव में चारित्रावरण(चारित्र मोहनीय ) कर्म का एक देश रूप से क्षय भी कारण है। केवल बाह्य पदार्थ से उस (शुद्धात्मानुभव ) की क्षति अथवा उस (शुद्धात्मानुभव) की अक्षति नहीं होती है।
अस्त्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तटक्षतिः ।।
तदापि न बहिर्वस्तु स्यात्तद्धेतुरहेतुतः || १४४७॥ सूत्रार्थ - उपादान कारण से उस शुद्धात्मानुभव की क्षति अथवा शुद्धात्मानुभव की अक्षति होती है।( जिस समय अपने इस उपादान हेतु से शुद्धात्मानुभव की क्षति व अक्षति होती है ) उस समय भी बाह्य वस्तु (दीक्षा-आदेश-उपदेशआदि ) उस शुद्धात्मानुभव की क्षति या अक्षति में कारण नहीं है क्योंकि वह बाह्य वस्तु उस क्षति-अक्षति में अकारण है।
सन्ति संज्वलनस्योच्चैः स्पर्धका देशघातिनः ।
तद्वियाकोऽरत्यमन्दो वा मन्दो हेतुः क्रमाद् द्वयोः ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ - संचलन कषाय के देशघाति वास्तविक स्पर्द्धक हैं। उनका तीव्र व मन्द विपाक होता है। वही क्रम से क्षति और अक्षति इन दोनों में कारण है।
संतलेशस्तक्षतिनं विशुद्धिस्तु तदक्षतिः ।
सोऽपि तरतमरतांशैः सोऽप्यनेकैरजेकधा ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ - निश्चय से उस शुद्ध आत्मानुभव की क्षति संक्लेश है और उस शुद्ध आत्मानुभव की अक्षति तो विशुद्धि है। वह संक्लेश और विशुद्धि भी अपने तरतम रूप अंशों की अपेक्षा अनेक प्रकार की है। और यह तरतमरूप अंश भी अपने अवान्तर भेदों की अपेक्षा अनेक प्रकार के हैं।
अस्तु यद्वा न शैथिल्यं तन्न हेतुबशादिह ।
तथाप्येतावताचार्यः सिद्धो नात्मन्यतत्परः ॥१४५०॥ सूत्रार्थ- यहाँ ( उस शुद्धात्मानुभव में हेतु (संज्वलन के तीन मन्द उदय)के वश से शिथिलता होवे अथवा मत होवे तथापि इतने मात्र से आचार्य आत्मा में अतत्पर सिद्ध नहीं है।
तयावश्यं विशुयशस्तेषां मन्दोदयादिति ।
संक्लेशांशोऽथवा तीतोदयान्नायं विधिः स्मृतः ।। १४५१॥ सूत्रार्थ - उस शुद्धात्मानुभव में उन (संज्वलन)के मन्द उदय से विशुद्धि अंश अवश्य है अथवा उनके तीव्र उदय से संक्लेश अंश अवश्य है। उस संक्लेश और विशुद्धि में यह विधि ( बहिरंग क्रिया का सद्भाव या असद्भाव कारण) नहीं मानी गई है।
किन्तु दैताद्विशुद्धयंशः संक्नेशांशोऽथवा क्वचित् ।।
तद्विशुद्धेविशुद्धयंशः संक्लेशांशोटयः पुनः ॥१४५२॥ सूत्रार्थ - किन्तु दैव से कभी विशुद्धि-अंश अथवा कभी संक्लेश अंश पाया जाता है। उस (कर्म) की विशुद्धि से विशुद्धि अंश है और फिर संक्लेश अंश का उदय ( प्रगटता) हो जाता है।