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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
आरते स शुद्धमात्मानमास्तिध्नुवानश्च परम् ।
स्तिमितान्तर्बहिर्जल्यो निस्तरंगाधिवन्मुनिः ॥ १४३७ ॥ सवार्थ- और वह साध केवल शद्ध आत्मा में लीन रहता है और तरंग रहित समद्र की तरह जिसका बहिरंग वचन-व्यवहार रूक गया है ऐसा है।
नादेश जोपदेश वा नादिशेत स मनागपि ।
स्वर्गापवर्गमार्गस्य तद्विपक्षस्य कि पनः || १४३८॥ सूत्रार्थ - वह साधु स्वर्ग और मोक्षमार्ग का किंचित् भी न तो आदेश और न उपदेश ही करता है तो फिर उस (स्वर्ग और मोक्षमार्ग) से विपरीत मार्ग के ( आदेश उपदेश आदि के बारे में कहना ही क्या ।(वह तो करता ही नहीं)।
वैराग्यस्य पराकाष्ठामधिरूळोऽधिकराभः । दिगम्बरो यथाजातरूपधारी दयापरः || १४३९॥
राष्ठा को (चरम सीमा को) प्राप्त है अधिक प्रभा युक्त है, दिगम्बर है, यथाजातरूप को धारण करने वाला (नग्न ) है और दया में तत्पर है।
निर्वान्योऽन्तर्बहिर्मोहवान्थेरुग्रन्थको यमी ।
कर्मनिर्जरकः श्रेण्या, तपरची सतपशुभिः ॥ १४४० ॥ सूत्रार्थ - वह साधु निर्ग्रन्थ है, अन्तरंग और बहिरंग मोह की गांठ को खोलने वाला है यमी है,गुणश्रेणी क्रम से कों की निर्जरा करने वाला है, और तप रूपी, किरणों से तपस्वी है।
परीषहोपसर्गारजय्यो जितमन्मथः ।
एषणाशुद्धिसंशुद्धः प्रत्याख्यानपरायणः ॥ १४४१॥ सत्रार्थ- परीषह और उपसर्ग आदि के द्वारा पराजित नहीं होने वाला है. जीत लिया है कामदेव के
पराजित नहीं होने वाला है, जीत लिया है कामदेव को जिसने ऐसा है, भोजनशुद्धि से पूर्ण शुद्ध है। प्रत्याख्यान ( त्याग) में परायण ( तत्पर ) है।
इत्याद्यनेकधाउनेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः ।
नमस्यः श्रेयसेवश्यं नेतसे विदुषां महान || १४४२॥ सूत्रार्थ - इत्यादिक अनेक प्रकार के अनेक अच्छे--अच्छे गुणों से युक्त है। वह महान् साधु मोक्ष की प्राप्ति के लिये विद्वानों (ज्ञानियों ) के द्वारा अवश्य नमस्कार करने योग्य है, दूसरा नहीं।
श्रीसमयसार जी में कहा है वावारतिप्यमुक्का चउनिहाराहणासयास्ता ।
णिग्यांथा णिम्मोहा साह एदेरिसा होति ॥ ७५॥ सूत्रार्थ - व्यापार से विमुक्त ( समस्त ज्यापार रहित)', चतुर्विध आराधना में सदा रत', निर्ग्रन्थ और निमोह; - ऐसे साधु होते हैं।
श्रीद्रव्यसंग्रहजी में कहा है दसणणाणसमग्गा मर्ग मोचरवरस जो हु चारित्तं ।
साधयदि णिच्चसुद्धं साडू स मुणी णमो तरस ॥ ५४॥ सूत्रार्थ - सम्यग्दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण, नित्यशुद्ध, मोक्ष के मार्गभूत चारित्र को निश्चय से जो साधता है वह मुनि साधु है, उसके लिये नमस्कार हो।
गुरुओं में परस्पर विशेषता सूत्र १४४३ से १४८२ तक ४० एवं मुनित्रयी ख्याता महती महतामपि ।
तथापि तद्विशेषोऽस्ति कमातरतमात्मकः || १४४३॥ सवार्थ - इस प्रकार महानों के भी महान मनित्रय कहे तथापि तरतमरूप से उनमें विशेष ( अन्तर है। वह अन्तर क्रम से इस प्रकार है।