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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
तेषामेवाश्रम लिङ्ग सूरिणां संयम तपः ।
आश्रयेच्छुद्धचारित्रं पञ्चाचारं स शुद्धधीः ॥ १५३१।। सूत्रार्थ - उन आचार्यों के ही आश्रम को, लिंग को, तप को, शुद्ध चारित्र को, और पंचाचार को वह शुद्ध बुद्धि (उपाध्याय) आश्रय करता है।
मूलोत्तरगुणालेव यथोक्तानाचरेचिरम् ।
परीषहोपसर्गाणां विजयी स भवेद्वशी ॥ १५३२ ।। सूत्रार्थ - उपाध्याय जैसे शास्त्रों में कहे हैं वैसे मूल उत्तर गुणों को भी चिरकाल तक पालन करता है। वह परीषह और उपसर्गों का जीतने वाला और इन्द्रियों को वश में करने वाला होता है।
अत्रातिविस्तरेणा नूनमन्तर्बहिर्मुनेः।
शुद्धवेषधरो धीमान निर्वान्थः स ठाणावाणी ॥ १५३३ ।। सूत्रार्थ - इस विषय में अधिक विस्तार से बसे, जो निश्चय से मुनि का अन्तरंग और बहिरंग शुद्धवेष धारण करने वाला, धीरवीर, निर्ग्रन्थ और गण में अग्रणी है, वह उपाध्याय है।
उपाध्यायः समारब्यातो विरव्यातोऽस्ति स्वलक्षणैः ।
अधुना साध्यते साधोलक्षणे सिद्धमागमात् ॥१५३४ ॥ सूत्रार्थ - उपाध्याय का भले प्रकार वर्णन किया गया जो अपने लक्षणों से विख्यात है। अब साधु का लक्षण सिद्ध किया जाता है जो आगम से सिद्ध है।
प्रश्न - उपाध्याय किसे कहते हैं?
उत्तर - जो वादित्व (वाद में जीतने की शक्ति), वाग्मित्व (उपदेश देने में कशलता), कवित्व (कविता करने की शक्ति गमकत्व (टीका करने की शक्ति) इन चार गणों में प्रवीण हों और द्वादशांग के पाठी हों। इनमें शास्त्राध्यास करना, कराना, पढ़ना, पढ़ाना मुख्य है। इसलिये साधुओं के २८ मुलगुणों के सिवाय ११ अंग और १४ पूर्व कापाठीपना इसप्रकार २५ गुण और भी उपाध्याय में होते हैं।
श्रीनियमसारजी में कहा है स्यणतयसंजत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सरा ।
णिक्कंरभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ॥ ७॥ सूत्रार्थ - रत्नत्रय से संयुक्त',जिनकथित पदार्थों के शूरवीर उपदेशक', और नि:कांक्षभाव सहित':- ऐसे उपाध्याय
होते सूत्रार्थ - रत्नत्रय से
श्रीद्रव्यसंग्रहजी में कहा है जो रयणत्तयजुत्तो णिच्च धम्मोतटेसणे जिरदो ।
सो उवज्झाओ अप्पा जदेिवरतसहो णमो तस्स ॥५३॥ सूत्रार्थ- जो रत्नत्रययुक्त है',नित्य धर्मोपदेश देने में रत है, यतियों में श्रेष्ठ है',बह आत्मा उपाध्याय है, उसके लिये नमस्कार हो।
साधु गुरु का स्वरूप सूत्र १४३५ से १४४२ तक ८ मार्ग मोक्षरय चारित्रं सदृग्ज्ञप्तिपुरस्सरम् ।
साधयत्यात्मसिद्ध्यर्थ साधुरन्वर्थसंज्ञकः || १४३५॥ सूत्रार्थ-जो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-पूर्वक होता है और जो मोक्ष का मार्ग है ऐसे चारित्रको, जो आत्मा की सिद्धि के लिये साधता है बह साधु है। इस प्रकार अन्वर्थ नामधारी है।
जोच्याच्चायं यमी किञ्चिद्धस्तपादादिसंज्ञया ।
न किञ्चिहर्शयेरवस्थो मनसापि न चिन्तयेत् || १४३६॥ सूत्रार्थ- यह साधु कुछ नहीं बोलता(वचन निरोध)हाथ-पैरआदि के संकेत से कुछ नहीं दर्शाता अर्थात् ( किसी बात का इशारा नहीं करता( काय निरोध)और मन से भी कुछ नहीं चिन्तवन करता(मन निरोध)किन्तु स्व (आत्मा) में स्थित रहता है।
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