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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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आचार्यः स्यादुपाध्यायः साधुरपति विद्या जमाः ।
स्युर्विशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुञ्जरा: ॥१४०६ ॥ सूत्रार्थ - गुरु आचार्य, उपाध्याय, साधु ऐसे तीन प्रकार माना गया है। ( तीनों) विशिष्ट पदों में आरूढ़ हैं और तीनों ही मुनि कुंजर ( मुनिवर-श्रेष्ठ ) मुनि हैं।
एको हेतुः क्रियाऽप्येका वेषश्चैको बहिः समः ।
तपो द्वादशधा चैकंवत चैकं च पञ्चधा ।।१४०७॥ सत्रार्थ - ( उन तीनों का) एक हेत(कों की अवस्था) है,क्रिया भी एक है,और वेष भी एक है, बहिरंग भी एकसा है तथा बारह प्रकार का तप एकसा है और पाँच प्रकार का महाव्रत भी एकसा है।
त्रयोदशविधं चैकं चारित्रं समतैकधा ।
मलोत्सरगणाश्चैके संयमोऽप्येकधा मतः ||१४०८।। सूत्रार्थ - तेरह प्रकार का चारित्र एकसा है तथा समता एक प्रकार की है, और मूल तथा उत्तर गुण एकसे हैं, और संयम भी एक प्रकार का माना गया है।
परीषहोपसर्गाणां सहनं च समं रमतम ।
आहाराटिविधिश्चैकरचर्यास्थानासनादयः ॥ १४०९ ॥ सत्रार्थ - तथा परीषह और उपसर्गों का सहन भी एकसा माना गया है। तथा आहारादि की विधि एक है। चर्या, शय्या, आसन इत्यादिक एक से हैं।
मार्गो मोक्षस्य सददृष्टिनिं चारित्रमात्तपनः ।
रत्नत्रयं समं तेषामपि चान्लबहि:स्थितम || १४१०॥ सुत्रार्थ - उन तीनों के मोक्ष का मार्ग अर्थात आत्मा का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय जो अन्तरंग और बहिरंग में स्थित है, समान है।
ध्याता ध्यानं च ध्येयं च ज्ञाला ज्ञाजं च ज्ञेयसात् ।
चतुर्धाऽराधना चापि तुल्या क्रोधादिजिण्णुता ।। १४११ ॥ सुत्रार्थ - ध्याता,ध्यान,ध्येय और ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय भी समान है। चार प्रकार की आराधना भी बराबर है और क्रोधादि की जयशीलता भी समान है।
किं वाच बहनोवतेन तद्विशेषोऽवशिष्यते ।
विशेषाच्छेषनिःशेषो न्यावादस्त्यविशेषभाक || १५१२॥ सूत्रार्थ - इस विषय में बहुत कहने से क्या, उनका विशेष ( लिखना )अवशिष्ट ( बाकी ) रहता है। विशेष से बाकी बचा शेष सब न्याय से विशेष रहित ( एक जैसा) है। अर्थात उनमें जो अन्तर है उसका आगे निर्देश कर देते हैं। उस अन्तर के अतिरिक्त शेष सब समानता ही है।
गुरु का सामान्य स्वरूप समाप्त हुआ आचार्य गुरु का स्वरूप सूत्र १४१३ से १४२६ तक १४ आचार्योऽनादितो रूढयोगाटघि निरुच्यते । पञ्चाचार परेभ्यः स आचारयति संयमी ॥ १४१३ ।।
सूत्रार्थ - आचार्य अनादि रूढ़ि से और योग से ( निरूक्ति-अर्थ से) भी कहा जाता है। जो दूसरों के लिये पंचाचार को आचरण कराता है। वह संयमी ( आचार्य) है।
अपि छिन्ने तते साधोः पुनः सन्धानमिच्छतः ।
तत्समादेशदानेन प्रायश्चित्तं प्रयच्छति ॥१४१४॥ सत्रार्थ- और जो व्रत के खण्ड होने पर फिर से उस व्रत में जुड़ने को चाहने वाले साधु के उसका पुन: आदेश देने से प्रायश्चित को देता है। वह आचार्य है।