________________
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
आदेशरयोपदेशेभ्य: स्याद्विशेषः स भेदभाव ।
आददे गुरुणा दत्तं नोपदेशेष्तयं विधिः ॥ १४१५ ।। सूत्रार्थ - आदेश के उपदेशों से जो विशेष है वह भेद रखने वाला है। आदेश में तो 'गुरु के दिये हुए व्रत को ग्रहण करता हूँ' यह विधि है परन्तु उपदेशों में यह विधि नहीं है।
न निषिद्धस्तदादेशो गृहिणां वतधारिणाम् ।
टीक्षाचार्येण दीक्षेत दीयमानारित तत्किया ॥१५॥ सूत्रार्थ - (आचार्यों के समान ) वह आदेश करना व्रतधारी गृहस्थों के भी निषिद्ध नहीं है क्योंकि दीक्षा आचार्य के द्वारा दी हुई दीक्षा के समान ही वह किया है।
स निषिद्धो यथाम्नायादवतिला मनागपि ।
हिंसकरचोपदेशोऽपि लोपयुज्योऽत्र कारणात् ॥ १५१७ ॥ सूत्रार्थ - वह ( आदेश) आम्नाय के अनुसार अवतियों के थोड़ा भी निषिद्ध हैं। और किसी भी कारण से हिंसक उपदेश भी उपयुक्त नहीं है।
मुनिवतधराणां वा गृहस्थरतधारिंणाम् ।
आदेशश्चोपदेशो वा न कर्तव्यो वधाश्रितः ॥ १५१८॥ सूत्रार्थ - मुनि व्रत धारियों के अथवा गृहस्थव्रतधारियों के द्वारा वध-आश्रित ( हिंसा करने वाला) आदेश और उपदेश नहीं किया जाना चाहिये।
न चाशंन्यं प्रसिद्धं यन्मुनिभिर्वतधारिभिः ।
मूर्तिमच्छवितसर्वरतं हस्तरेखेव दर्शितम् || १४१९ ।। सूत्रार्थ - ऐसी आशङ्का नहीं करना चाहिये कि यह प्रसिद्ध है कि व्रतधारी मुनियों के द्वारा मूर्तिमान् पदार्थों की सम्पूर्ण शक्तियाँ हाथ की रेखा के समान देख ली गई हैं।
भावार्थ - ऊपर कहा गया है कि व्रती हिंसा का उपदेश नहीं देते। इसपर कोई कहे कि जिस मुनि को अपने दिव्य ज्ञान अवधि या मन:पर्याय या विशिष्ट मति, श्रुत द्वारा यह पता चल जाये कि उस व्यक्ति के ऐसी हिंसक दशा होने
र यदि वह उसके बारे में हिंसक उपदेश दे दे तो क्या आपत्ति है ? उसके उत्तर में अगले सूत्र में कहते है कि विरागियों का उपदेश रागकारक नहीं हो सकता।
नूनं प्रोत्तोपदेशोऽपि न रागाय विरागिणाम |
रागिणामेव रागाय ततोsaश्यं निषेधितः || १४२०॥ सूत्रार्थ- निश्चय से विरागियों का ऊपर कहा हआ उपदेश भी राग के लिये नहीं है किन्तु रागियों का उपदेशही राग के लिये होता है। अत: अवश्य निषेध किया गया है।
न निषिद्धः स आदेशो लोपदेशो निषेधितः ।
नूनं सत्पात्रटानेबु पूजायामर्हतामपि || १५२१॥ सूत्रार्ध - निश्चय से सत्पात्र दानों में और अरहन्तों की पूजा में भी न वह आदेश निषिद्ध है और न वह उपदेश निषिद्ध है।
यद्वादेशोपदेशो द्वौ स्तो निरवद्यकर्मणि ।
या सावटालेशोऽस्ति तत्रादेशो न जातुचित् ॥ १४२२ ।। सूत्रार्थ - अथवा वे आदेश और उपदेश दानों ही हिंसा रहित कार्य में ही होते हैं। जहाँ हिंसा का लेश भी है वहाँ आदेश कदापि नहीं है।
सहासंयमिभिर्लोकैः संसर्ग भाषणं रतिम् ।
कर्यादाचार्य इत्येके नासौ सरिन चाहतः ॥ १४२३॥ सूत्रार्थ - आचार्य असंयमी लोगों के साथ संसर्ग, भाषण (बातचीत) और रति (प्रेम व्यवहार ) करे ऐसा कोई कहते हैं। ( उसके उत्तर में ग्रन्थकार कहते हैं कि) न वह आचार्य है और न अरहन्त का अनुयायी (जैन) है।