SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ नाल छद्मस्थताप्येषा गुरुत्वक्षतये मुनेः । रागाद्यशुद्धभावानां हेतुमहिककर्म तत् ॥ १३९८ ॥ सूत्रार्थं मुनि की यह छद्मस्थता भी गुरुपने की हानि के लिये समर्थ नहीं है क्योंकि रागादि अशुद्ध भावों का कारण केवल वह एक मोह कर्म ही है। - - शंका नन्वावृतिद्वयं कर्म वीर्यविध्वंसि कर्म च । अस्ति तत्राप्यवश्यं वैकुतः शुद्धत्वमत्र चेत् ॥ १३९९ ॥ शंका आवरण द्वय कर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण) और वीर्य को नाश करने वाला कर्म (वीर्यान्तराय कर्म ) वहाँ (उन गुरुवों में ) भी अवश्य है। फिर यहाँ शुद्धपना वास्तव में किस हेतु से है ? - भावार्थ शिष्य तेरहवें गुणस्थान की शुद्धता को ही शुद्धता मानता है और उसी शुद्धता को गुरुत्व में कारण मानता है । छद्मस्थों में गुरुत्व नहीं मानता। ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी समाधान सूत्र १४०० से १४०४ तक ५ सत्यं किन्तु विशेषोऽस्ति प्रोक्तकर्मत्रयस्य च । मोहकर्माविनाभूतं बन्धसत्त्वोदय क्षयम् ॥ १४०० ॥ सूत्रार्थ - ठीक है किन्तु इतनी विशेषता है कि उक्त तीनों कर्मों का बंध, सत्त्व, उदय, क्षय, मोह, कर्म से अविनाभूत है । ताथा बध्यमानेऽस्मिंस्तद्बन्धो मोहबन्धसात् । तत्सत्वे सत्त्वमेतस्य पाके पाकः क्षये क्षयः ॥ १४०१ ॥ सूत्रार्थ - वह इस प्रकार है कि इस (मोह कर्म ) के बंध होने पर उस (ज्ञानावरणादि) का बंध होता है क्योंकि इनका बन्धन मोह के बन्ध के आधीन है। उस मोह के सत्च्त्व पर इनका सत्त्व है, इसके उदय पर उनका उदय है, और इसके क्षय पर उनका क्षय है अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा वीर्यान्तराय, मोहनीय से हर प्रकार से अविनाभूत है। नोहा छनस्थावस्थायामर्वागेवास्तु तत्क्षयः । अंशान्मोह क्षयस्यांशात्सर्वतः सर्वतः क्षयः ॥ १४०२ ॥ - - सूत्रार्थं - ऐसा विचार नहीं करना चाहिये कि छद्मस्थ अवस्था में ज्ञानावरणादि क्षय होने से पहले ही उस मोह कर्म का क्षय होता है किन्तु मोह कर्म का अंश रूप से क्षय होने पर ज्ञानावरणादि का भी अंश रूप से क्षय होता है। और मोह कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने से ज्ञानावरणादि का भी सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाता है। नासिद्धं निर्जरातत्त्वं सद्दृष्टेः कृत्स्नकर्मणाम् । आदृमोहोदयाभावात्तच्चासंख्यगुणं क्रमात् ॥ १४०३ ।। सूत्रार्थं सम्यग्दृष्टि के ज्ञानावरणादिक सम्पूर्ण कर्मों का निर्जरा रूप तत्त्व असिद्ध नहीं है क्योंकि दर्शन, मोह के उदय का अभाव होने तक वह निर्जरा तत्त्व भी क्रम से (उत्तर-उत्तर) असंख्यात गुणा माना गया है। ततः कर्मत्रय प्रोक्तमस्ति यद्यपि साम्प्रतम् । रागद्वेषविमोहानामभावाद्गुरुता मला || १४०४ ॥ सूत्रार्थ इसलिये यद्यपि अब ( इस अवस्था में छद्मस्थ वीतराग गुरुओं में ) ऊपर कहे हुए ज्ञानावरणादिक तीनों ही कर्मों का सद्भाव पाया जाता है तथापि राग, द्वेष और मोह के अभाव से गुरुपना माना ही जाता है। भावार्थ - समाधान का सार यह है कि गुरुत्वपने के लिये जितने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की आवश्यकता है उतना क्षयोपशम एकदेश ( राग-द्वेष-मोह के अभाव के अविनाभाव कारण से उन के होता ही है। अथास्त्येकः स सामान्यात्सद्विशेषात् त्रिधा गुरुः । एकोऽप्यग्निर्यथा तार्ण्यः पार्थ्यो दार्व्यस्त्रिधोच्यते ॥ १४०५ ॥ सूत्रार्थं - अब वह गुरु सामान्यरूप से एक प्रकार का है और सत्विशेष से तीन प्रकार का है जैसे कि एक भी अग्नि तृण की आग, पत्र की आग, तथा लकड़ी की आग, तीन प्रकार की कही जाती है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy