________________
द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
भाविनैगमनयायत्तो
भूण्णुस्तद्वानिवेष्यते 1
अवश्यं भावतो व्याप्तेः सद्भावात्सिद्धसाधनात् ॥ १३२१ ॥
सूत्रार्थ भाविनैगमनय के आधीन आगे होने वाला, हुए के समान कहा जाता है और यह ठीक ही है क्योंकि भाव से व्याप्ति का सद्भाव पाया जाने से साधन सिद्ध है अर्थात् छठे से बारहवें के जीव नियम से अरहन्त होंगे। अतः उन्हें भावि नैगम नय से अभी भी गुरु कहने में कोई दोष नहीं है। न्याय संगत ही है। पर छठे से नीचे के जीव में अरहन्तरूपता न होने से गुरु कहने में दोष है।
अस्ति सद्दर्शनं तेषु मिथ्याकर्मोपशान्तितः ।
चारित्रं देवलः सम्यदः ॥ १०१ ॥
सूत्रार्थ मिथ्यात्व कर्म की उपशान्ति (अनुदयं ) से उनमें सम्यग्दर्शन है। और चारित्र मोहनीय के नाश से एक देश रूप में सम्यक् चारित्र है इससे स्पष्ट है कि द्रव्यलिंगी गुरु नहीं होते तथा छठे से नीचे के सम्यग्दृष्टि भी गुरु नहीं होते ।
-
ततः सिद्धं निसर्गाद्वै शुद्धत्वं हेतुदर्शनात् ।
मोहकर्मोदयाभावात्तत्कार्यस्याप्यसम्भवात् ॥ १३९३ ॥
सूत्रार्थ इसलिये (उन गुरुओं में) निश्चय करके स्वभाव से और हेतु देखे जाने से शुद्धपना सिद्ध है क्योंकि मोह कर्म के उदय का अभाव होने से उसके कार्य ( रागादि भाव ) की भी असंभवता है। छठे से जितना राग का अभाव है उससे यहाँ आशय है। अब उस गुरुपने का कारण बतलाते हैं।
-
३८७
तच्छुद्धत्वं सुविख्यातं निर्जराहेतुरञ्जसा ।
निदानं संवरस्यापि क्रमान्निर्वाणभागपि ॥ १३२४ ॥
सूत्रार्थ - वह शुद्धपना सुप्रसिद्ध है और वास्तव में निर्जरा का कारण है। संवर का भी कारण है और क्रम से मोक्ष भी देने वाला है।
यद्वा स्वयं तदेवार्थान्निर्जरादित्रयं यतः । शुद्धभावाविनाभावि द्रव्यनामापि तत्प्रयम् ॥ १३९५ ॥
सूत्रार्थ अथवा वास्तव में वह शुद्धपना ही स्वयं निर्जरादि त्रय-रूप ( संवर- निर्जरा मोक्ष) है क्योंकि शुद्ध भावों में अविनाभावी द्रव्य नामा ( आत्मा ) उन तीन रूप है।
-
निर्जरादिनिदानं यः शुद्धो भावश्चिदात्मनः ।
परमाई : स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरुः || १३२६ ॥
सूत्रार्थ चैतन्य आत्मा का जो शुद्ध भाव है वह निर्जरादि का कारण है। वह ही परम पूज्य है। उस शुद्धभाव से युक्त आत्मा परम गुरु है।
प्रमाण- उपर्युक्त तीन सूत्रों का भाव श्रीप्रवचनसारजी के इस सूत्र से लिया गया
सुद्धस्स य सामणं भणियं सुद्धस्स दंसणं जाणं ।
सुद्धस्स य णिवाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तरस ॥ २७४ ॥
-
सूत्रार्ध - शुद्ध के ( शुद्धोपयोगी के ) श्रामण्य कहा है, शुद्ध के दर्शन और ज्ञान कहा है, शुद्ध के निर्वाण होता है, उसी प्रकार शुद्ध ही सिद्ध होता है, उसके लिये नमस्कार है ।
-
न्यायाद गुरुत्वहेतुः स्यात् केवलं दोषसंक्षयः ।
निर्दोषों जगतः साक्षी नेता मार्गस्य नेतरः ॥ १३९७ ॥
सूत्रार्थं न्याय से गुरुत्वधने में कारण केवल दोषों का क्षय हो जाना है क्योंकि जो निर्दोष है वह जगत का साक्षी
है और वह ही मोक्ष मार्ग का नेता है दूसरा नहीं (दोषयुक्त नहीं ) ( जब तक जीव छठे गुणस्थान से नीचे है तब तक इतना बीतरागी नहीं होता जितना वीतरागता की कि गुरुपने के लिये आवश्यकता है। सब में मध्यस्थ भाव का धारी ही गुरु हो सकता है ) !