________________
३८६
ग्रन्थराज श्री पञ्वाध्यायी
वृद्धै प्रोक्तमतः सूने तत्त्वं वागतिशायि यत् ।
द्वादशाङ्गाङ्गवाह्यं वा श्रुतं स्थूलार्थगोचरम् ॥ १३८४ ॥ सूत्रार्थ - इसलिये वृद्ध आचार्यों के द्वारा सूत्र में यह कहा गया है कि तत्त्व वचनातीत है। और जो द्वादशांग तथा अङ्गबाह्य श्रुत रूप है वह तो स्थूल पदार्थ को विषय करने वाला है।
सिद्ध देव का विशेष स्वरूप १३८५ से १३८६ तक २ कृत्रत्रकर्मक्षयामा क्षाधिक दान पुजः ।
अत्यक्ष सुरवमात्मोत्थं वीर्य चेति चतुष्टयम् ॥ १३८५ ॥ सूत्रार्थ - (सिद्ध में) सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से ज्ञान है, क्षायिक दर्शन है और अतीन्द्रिय सुख है। आत्म से उत्पन्न (अनन्त ) वीर्य है इस प्रकार अनन्त चतुष्टय है।
सम्यवत्तं चैन सूक्ष्मत्वमव्याबाधगुणः स्ततः ।
अप्यगुरुलघुत्वं च सिद्धे चाष्ट गुणाः स्मृताः ॥ १३८६ ।। सूत्रार्थ - और सम्यक्व, सूक्ष्मत्व, अव्यावाधगुण, अगुरुलघुत्व, सिद्ध में ये आठ गुण स्वत: माने गये हैं।
देव का उपसंहार इत्याद्यानन्तधर्माढ्यः कर्माष्टकविवर्जितः ।
मुक्तोऽष्टादशभिटोबैवः सेव्यो न चेतरः ॥१३८७ ॥ सूत्रार्थ - इत्यादि अनन्त गुणों का स्थान, आठ कर्मों से रहित (सिद्ध देव है) और अठारह दोषों से रहित (अरहन्त) देव है। यह देव सेवन करने योग्य है। दूसरा नहीं।
गुरु का सामान्य स्वरूप सूत्र १३८८ से १४१२ तक २५ अर्थाद् गुरुः स एवास्ति श्रेयोमार्गोपटेशकः ।
भगवांस्तु यतः साक्षान्लेला मोक्षस्य वमनः ॥ १३८८।। सूत्रार्थ - वास्तव में गुरु वह (अरहन्त) ही है क्योंकि मोक्षमार्ग का उपदेशक है। और वही भगवान है क्योंकि साक्षात् मोक्ष के मार्ग का नेता है।
भावार्थ - अरहन्त भगवान को परमगुरु कहते हैं और शेष छठे से बारहवें गुणस्थान के छद्मस्थ जीवों को (अर्थात् आचार्य उपाध्याय साधुओं को) अपर गुरु कहते हैं। गुरु में सम्यक्त्व, चारित्र तथा बाह्य अभ्यन्तर दिगम्बरत्व अवश्य चाहिये। उसके बिना गुरु नहीं होता। गुरु में उपदेश की मुख्यता होती है क्योंकि जो अपने कल्याण में निमित्त पड़े उसे गुरु कहते हैं सो ग्रन्धकार कहते हैं कि अरहन्त भगवान तो साक्षात् दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश देकर जीव का हित करते हैं। नेता को भी गुरु कहते हैं सो वे तो साक्षात् मोक्षमार्ग के नेता हैं।
तेभ्योऽर्वागपि ण्झस्थरूपास्तद पधारिण: 1
गुरतः स्युरोायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक ॥ १३८९॥ सूत्रार्थ - उन ( अरहन्तों) से पहले भी उस ( अरहन्त ) रूप के धारण करने वाले छद्मस्थरूप गुरु हैं गुरु के न्याय से। अन्य गुरु नहीं हैं क्योंकि वे भिन्न प्रकार की अवस्था को धारण करने वाले हैं (बाह्य अभ्यन्तर दिगम्बरत्व को धारण करने वाले अरहन्त के रूप के धारी कहलाते हैं। अतः वे भी गुरु हैं। यही उनके गुरुपने में युक्ति है। अन्य भेषधारी गुरु नहीं हो सकता)।
अरत्यवरथाविशेषोऽत्र युक्तिस्वानुभवागमात् । शेषसंसारिजीवेभ्यस्तेषामेवातिशायनात्
॥१३९० ॥ सूत्रार्थ - यहाँ ( इस गुरुपने में ) अवस्था विशेष ( कारण) है जो युक्ति-स्वानुभव और आगम से सिद्ध है। शेष संसारी जीवों से उनके ही अतिशयपना पाया जाता है (गुरुपने में कारण छठे, सातवें से होने वाला आत्मानुभव और वीतराग विज्ञानता है। अत: उनके समस्त संसारियों से विशेषता है। श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय सूत्र १६ में उसकी अलौकिकी वृत्ति कहा है।