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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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श्रीनियमसार जी में कहा है पटुकम्मबंधा अमहागणसमष्णिया परमा ।
लोयग्ठाठिटा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति ॥ ७२॥ सूत्रार्थ - आठ कर्मों के बन्ध को जिसने नष्ट कर दिया है ऐसा' आठ महा गुण सहित', परम', लोक के अन भाग में स्थित, और नित्य ।। - ऐसे वे सिद्ध होते हैं।
श्रीद्रव्यसंग्रह जी में कहा है णट्टकम्मदेहो लोयालोयरस जाणओ दट्ठा ।
पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोएसिहरत्थो । ५१ ॥ सत्रार्थ - नाश कर दिये हैं आठ कर्म और शरीर को जिसने ,लोक-अलोक के ज्ञाता-द्रष्टा', पुरुषाकार,लोक के शिखर में स्थित, आत्मा सिद्ध घ्याओ।
अरहन्त देव का विशेष स्वरूप सूत्र १३७७ से १३८४ तक ८ अर्हन्निति जगत्पज्यो जिनः कर्मारिशातनात ।
महादेवोऽधिटेवत्वाच्छरोऽपि सुरवावहात् ॥ १३७७॥ सूत्रार्थ - 'अहत्' है क्योंकि जगत पूज्य है। जिन है क्योंकि कर्म रूपी शत्रओं को नाश कर दिया है। महादेव है क्योंकि देवाधिदेव हैं, शङ्कर है क्योंकि सुख का स्थान है।
विष्णुर्ताजेन सर्वार्थविस्तृतत्वाकथंचन ।
ब्रह्मा बाझरूपत्वाद्भरि१ः रखापनोदनात् ॥ १३७८ ।। सूत्रार्थ - 'विष्णु' है क्योंकि ज्ञान से किसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थों के विस्ताररूप है। ब्रह्मा है क्योंकि आत्मा के स्वरूप जानने वाला है। हरि है क्योंकि दुःखों के दूर करने वाला है।
इत्याद्यनेकनामावि नाजेकोऽस्ति स्चलक्षणात् ।
यतोऽनन्सगुणात्मैकद्रव्यं स्यात्सिद्धसाधनात् ।।१३७९ ॥ सुत्रार्थ - इत्यादि अनेक नाम वाला होने पर भी अनेक नहीं है क्योंकि उसका निजलक्षण एक ही है। वह अनन्तगुणात्मक एक द्रव्य है यह सिद्ध साधन है।
चतुर्विंशतिरित्यादि यावदन्तमनन्तता ।
तबहत्वं न दोषाय देवत्वैकविधस्वत: ॥१३८०॥ सूत्रार्थ-(अनादिकाल से) चौबीस इत्यादि अन्त पर्यन्त ( भावि अनन्त काल तक) अनन्तता है (संख्या में अनन्त देव होते हैं ) किन्तु वह बहुत्व दोष के लिये नहीं है क्योंकि ( उन सबमें ) देवपना एक प्रकार का है।
प्रदीपानामनेकत्वं न प्रदीपत्तहानये ।
यतोऽकविधत्वं स्यान्न स्यान्नानाप्रकारता ।। १३८१॥ सत्रार्थ-प्रदीपों का अनेकपना दीपकपने की हानि के लिये नहीं है। क्योंकि यहाँ एक प्रकारता है। नानाप्रकारता नहीं है।
न चाशंक्यं यथासंख्यं नामतोऽप्यस्त्वनन्तधा । '
न्यायादेक गुणं चैक प्रत्येकं नाम चैककम् ॥ १३८२ ॥ सूत्रार्थ - न्यायानुसार एक-एक गुण की मुख्यता से देव का एक-एक नाम भिन्न-भिन्न हो जायेगा इसलिये यथासंख्य रीति से नामों की अपेक्षा से भी तो देव अनन्त प्रकार होना चाहिये - ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि
नामतो सर्वतो मुख्यसंरख्यातस्यैव सम्भवात् ।
अधिकस्य ततो वाचाव्यवहारस्य दर्शनात् ॥ १३८३॥ सत्रार्थ-क्योंकि शब्द की अपेक्षाको विषय करने वाले नाम की अपेक्षा से अधिक से अधिक उत्कृष्ट संख्यात तक ही नाम हो सकते हैं। उस उत्कृष्ट संख्यात से अधिक शब्द की अपेक्षा से कभी भी प्रतिपादन नहीं देखा जाता है।