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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - श्री अमृतचन्द्र जी को सदा अस्ति से ही लिखने का शौक है। कहते हैं कि यदि हम चाहें तो यहाँ प्रकरणवश सब खोटे देवों, गुरुओं और धर्मों का सविस्तार वर्णन कर सकते हैं पर हम देव गुरु धर्म की अस्तिविधि बतला देते हैं। उसके अतिरिक्त किसी को भी देव, गुरु, धर्म मानना मूढ़ता है। और सम्यग्दृष्टि केवल आगे बतलाए जाने वाली अस्ति विधि को ही मानता है अत: वह अमूढ़दृष्टि अंग का धारी है।
___ देव का सामान्य स्वरूप सूत्र १३७१ से १३७४ तक ४ दोषो रागादिसदभावः स्यादावरण कर्म तत् ।
तयोरभावोऽस्ति नि:शेषो यनासौ देव उच्यते ॥ १३७१ ।। सूत्रार्थ - दोष रागादि का सद्भाव और वह आवरण कर्म है। जहाँ (जिस जीव में) उन दोनों का रागादिभाव का और ज्ञानावरणादि आवरण (कर्म का) सम्पूर्णतया अभाव है, वह देव कहा जाता है।
अरत्यत्र केवलं ज्ञानं क्षायिकं दर्शनं सुखम् ।
वीर्य चेति सुविख्यातं स्यादनन्तचतुष्टयम् ॥ १३७२॥ सूत्रार्थ - इस (देव) में केवल ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक सुख और क्षायिक वीर्य इस प्रकार प्रसिद्ध अनन्तचतुष्टय है।
एको देवः स सामान्याद द्विधावस्थाविशेषतः ।
संख्येया नामसंदर्भाद् गुणेभ्य: स्यादनन्तधा ॥ १३७३॥ सूत्रार्थ- वह देव सामान्य से एक प्रकार का है। अवस्था विश्लेष से दो प्रकार का है। नाम रचना से संख्यात प्रकार का है। गुणों से अनन्त प्रकार का है।
एको देतः स द्रव्यार्धारिद्धः शन्द्रोपललितः |
अर्हन्निति सिद्भश्च पर्यायार्थाद् द्विधा मतः ॥ १३७४ ।। सत्रार्थ - द्रव्यार्थिक नय से वह देव एक प्रकार है जो शद्ध आत्मा की पूर्ण प्राप्ति से सिद्ध हो चका
से सिद्ध हो चुका है। ( अर्थात् जिसको स्वरूप की पूर्ण प्राप्ति हो चुकी है)। वही देव अरहन्त और सिद्ध पर्यायार्थिक नय से दो प्रकार माना गया है।
अरहन्त देव का सामान्य स्वरूप दिव्यौदारिकदेहस्थो धौतघातिचतुष्टयः ।
ज्ञानदृग्वीर्यसौरव्याम्यः सोऽर्हन धर्मोपदेशकः ।। १३७५ ॥ सूत्रार्थ - जो दिव्य औदारिक शरीर में स्थित है, थो दिये हैं घातिया चार कम जिसने, ज्ञान दर्शन वीर्य सौख्य का स्थान है, वह अरहन्त है। यह धर्म का उपदेशक है।
श्रीनियमसारजी में कहा है ___ घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइ परमगुणसहिया ।
चोत्तिसअटिसअजुत्ता अरिहंता एरिसा होति ॥७१॥ सूत्रार्थ - घनघातिकर्म रहित', केवलज्ञानादि परम गुणों सहित और चौंतीस अतिशय संयुक्त; - ऐसे अरहन्त होते हैं।
श्रीद्रव्यसंग्रहजी में कहा है णढचदुघाइकम्मो टंसणसुहणाणतीरियमईओ ।
सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो ॥ ५० ॥ सूत्रार्थ - नष्ट कर दिये हैं चार घातिया कर्म जिसने' शुभ देह में स्थित', शुद्ध, दर्शन-सुख-ज्ञान-वीर्यमय, आत्मा अरहन्त ध्यान करने योग्य है।
सिद्ध देव का सामान्य स्वरूप मूर्तिमद्देहनिर्मुक्तो लोको लोकावासंस्थितः ।
ज्ञानाद्यष्टगुणोपेतो निष्कर्मा सिद्धसंज्ञकः ॥ १३७६ ।। सूत्रार्थ - जो मूर्तिक शरीर से रहित है, सब पदार्थो का युगपत् जानने देखने वाला है , लोक के अग्रभाग में ठहरा हुआ है, ज्ञानादि-आठ गुणयुक्त है, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म रहित है, वह सिद्ध नाम का देव है।