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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक ३८३ है। सवाल रोटी दिवाला कि अफला कुफला हेतुशून्या योगापहारिणी । दुस्त्याज्या लौकिकी रूढ़िः कैश्चिदुष्कर्मपाकतः ॥१३५२॥ सूत्रार्थ - फलरहित, खोटे फलदाली, हेतुरहित, सम्बन्धरहित लौकिकी रूढ़ि किन्हीं के द्वारा खोटे कर्म के उदय में कठिनता से छोडने योग्य है। देवमूढ़ता सूत्र १३६३ से १३६७ तक ५ अटेवे देवबुद्धिः स्यादधौ धर्मधीरिह । अगुरौ गुरुबुद्भिर्या रव्याला देवादिमूढला || १३६३ ।। सूत्रार्थ - इस लोक में जो अदेव में देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि अगुरु में गुरु बुद्धि है, वह देवादिमूढ़ता कही गई है। बुद्धवाराधज कुर्यादैहिक श्रेयसे कुधीः ।। मुखालोकोपचारत्चादया लोकमूढता ॥ १३६४।। सत्रार्थ-खोटी बद्धि वाला( मिथ्यावृष्टि ) इस लोक सम्बन्धी कल्याण के लिये खोटे देवों के आराधन को करता है। झूठा लोक-उपचार होने से लोकमूढ़ता अकल्याणकारी है। अस्ति श्रद्धानमेकेषां लोकमढनशादिह । धनधान्यप्रदा नूनं सम्यनाराधिताम्बिका ॥ १३६५ ॥ सुत्रार्थ - इस लोक में किन्हीं-किन्हीं को लोक मूढ़ता के वश से ऐसा श्रद्धान है कि भले प्रकार आराधन की गई अम्बिका देवी निश्चय से धन-धान्य को देने वाली है। अपरेऽपि यथाकाम देवानिच्छन्ति दुर्धियः । सदोषानपि निर्दोषानिव प्रज्ञापराधतः ॥ १३६६॥ सूत्रार्थ - अन्य भी खोटी बुद्धि वाले जीव बुद्धि के दोष के कारण (अज्ञानता से ) दोषयुक्त देवों को भी निर्दोष देवों की तरह अपनी-अपनी इच्छानुसार मानते हैं। नोक्तस्तेषां समुद्देशः प्रसंगादपि संगतः । लब्धवर्णो न कुर्याद्वै लि:सारं ग्रन्थतिस्तरम् ॥ १३६७ ॥ सूत्रार्थ - प्रसंगानुसार सुसंगत होते हुए भी उन कुदेवों का कथन नहीं कहा गया है। बुद्धिमान पुरुष व्यर्थ ग्रन्थ के विस्तार को नहीं करते। धर्म मूढ़ता अधर्मस्तु कुदेवानां यातानाराधनोद्यमः । तैः प्रणीतेषु धर्मेषु चेष्टा वाक्कायचेतसाम् ॥ १३६८।। सूत्रार्थ - कुदेवों का जितना भी आराधन उद्यम है; वह अधर्म है। उनके द्वारा बताये हुए धर्मों के विषय में वचन, . काय, मन की जो-जो चेष्टा है वह सब अधर्म है। गुरु मूढ़ता सूत्र १३६९ से १३७० तक २ . कुगुरुः कुत्सिताचारः सशल्यः सपरिवग्रहः । सम्यक्त्वेन व्रतेनापि युक्तः स्यात्सद्गुरुय॑तः ।। १३६९ ।। सत्रार्थ- गरु खोटे आचरण वाला, शल्यसहित,परिग्रह सहित होता है क्योंकि सम्यक्च से और ही सद्गुरु होता है। अनोद्देशोऽपि न यान सर्वतोऽतीत विस्तरात् । आदेयो विधिरत्रोक्तो नाटेयोऽनुक्त एव सः || १३७० ।। सूत्रार्थ - यहाँ नाम-मात्र भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि सब प्रकार से बहुत विस्तार है। यहाँ आगे कही गई विधि उपादेय है और नहीं कही हुई वह ही विधि उपादेय नहीं है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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