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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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है। सवाल रोटी दिवाला कि
अफला कुफला हेतुशून्या योगापहारिणी ।
दुस्त्याज्या लौकिकी रूढ़िः कैश्चिदुष्कर्मपाकतः ॥१३५२॥ सूत्रार्थ - फलरहित, खोटे फलदाली, हेतुरहित, सम्बन्धरहित लौकिकी रूढ़ि किन्हीं के द्वारा खोटे कर्म के उदय में कठिनता से छोडने योग्य है।
देवमूढ़ता सूत्र १३६३ से १३६७ तक ५ अटेवे देवबुद्धिः स्यादधौ धर्मधीरिह ।
अगुरौ गुरुबुद्भिर्या रव्याला देवादिमूढला || १३६३ ।। सूत्रार्थ - इस लोक में जो अदेव में देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि अगुरु में गुरु बुद्धि है, वह देवादिमूढ़ता कही गई है।
बुद्धवाराधज कुर्यादैहिक श्रेयसे कुधीः ।।
मुखालोकोपचारत्चादया लोकमूढता ॥ १३६४।। सत्रार्थ-खोटी बद्धि वाला( मिथ्यावृष्टि ) इस लोक सम्बन्धी कल्याण के लिये खोटे देवों के आराधन को करता है। झूठा लोक-उपचार होने से लोकमूढ़ता अकल्याणकारी है।
अस्ति श्रद्धानमेकेषां लोकमढनशादिह ।
धनधान्यप्रदा नूनं सम्यनाराधिताम्बिका ॥ १३६५ ॥ सुत्रार्थ - इस लोक में किन्हीं-किन्हीं को लोक मूढ़ता के वश से ऐसा श्रद्धान है कि भले प्रकार आराधन की गई अम्बिका देवी निश्चय से धन-धान्य को देने वाली है।
अपरेऽपि यथाकाम देवानिच्छन्ति दुर्धियः ।
सदोषानपि निर्दोषानिव प्रज्ञापराधतः ॥ १३६६॥ सूत्रार्थ - अन्य भी खोटी बुद्धि वाले जीव बुद्धि के दोष के कारण (अज्ञानता से ) दोषयुक्त देवों को भी निर्दोष देवों की तरह अपनी-अपनी इच्छानुसार मानते हैं।
नोक्तस्तेषां समुद्देशः प्रसंगादपि संगतः ।
लब्धवर्णो न कुर्याद्वै लि:सारं ग्रन्थतिस्तरम् ॥ १३६७ ॥ सूत्रार्थ - प्रसंगानुसार सुसंगत होते हुए भी उन कुदेवों का कथन नहीं कहा गया है। बुद्धिमान पुरुष व्यर्थ ग्रन्थ के विस्तार को नहीं करते।
धर्म मूढ़ता अधर्मस्तु कुदेवानां यातानाराधनोद्यमः ।
तैः प्रणीतेषु धर्मेषु चेष्टा वाक्कायचेतसाम् ॥ १३६८।। सूत्रार्थ - कुदेवों का जितना भी आराधन उद्यम है; वह अधर्म है। उनके द्वारा बताये हुए धर्मों के विषय में वचन, . काय, मन की जो-जो चेष्टा है वह सब अधर्म है।
गुरु मूढ़ता सूत्र १३६९ से १३७० तक २ . कुगुरुः कुत्सिताचारः सशल्यः सपरिवग्रहः ।
सम्यक्त्वेन व्रतेनापि युक्तः स्यात्सद्गुरुय॑तः ।। १३६९ ।। सत्रार्थ- गरु खोटे आचरण वाला, शल्यसहित,परिग्रह सहित होता है क्योंकि सम्यक्च से और ही सद्गुरु होता है।
अनोद्देशोऽपि न यान सर्वतोऽतीत विस्तरात् ।
आदेयो विधिरत्रोक्तो नाटेयोऽनुक्त एव सः || १३७० ।। सूत्रार्थ - यहाँ नाम-मात्र भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि सब प्रकार से बहुत विस्तार है। यहाँ आगे कही गई विधि उपादेय है और नहीं कही हुई वह ही विधि उपादेय नहीं है।