________________
३७८
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - शंख वास्तव में सफेद होता है किन्तु किसी आंख के रोगी को वह पीला दीखता है। इसी प्रकार पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं है किन्तु मिथ्यादर्शन के कारण कोई इष्ट कोई अनिष्ट दीखता है।
दमोहस्यात्यये दृष्टिः साक्षात् भूतार्थदर्शिनी ।
तस्यानिष्टेऽस्त्यलिष्टार्थबुद्धिः कर्मफलात्मके ॥ १३३४ ।। सूत्रार्थ - दर्शनमोह के नाश होने पर दृष्टि साक्षात् भूतार्थ को देखने वाली होती है। उसके कर्मफल स्वरूप अनिष्ट पदार्थ में अनिष्ट पदार्थपने की बुद्धि होती है।
न चासिद्धमनिष्टव कर्मणस्तत्फलस्य च ।
सर्वतो दुःरवहेतुत्वाद्युक्तिस्वानुभवागमात् ॥ १३३५ ॥ सूत्रार्थ - कर्म के और उसके फल के अनिष्टपना असिद्ध नहीं है क्योंकि वह सब प्रकार से दुःख का कारण है। यह युक्ति, स्वानुभव और आगम से सिद्ध है।
अनिष्टफलवत्त्वात्रयादनिष्टार्था व्रतक्रिया ।
दुष्टकार्यानुरूपस्य हेतोर्तुष्टोपदेशवत् ॥ १३३६ ।। सूत्रार्थ - अनिष्ट फल वाली होने से व्रत क्रिया अनिष्टार्था है। जैसे दुष्टकार्य के अनुकूल कारण को दुष्ट' कहा जाता है।
अथासिद्ध स्वतन्त्रत्वं क्रियायाः कर्मण: फलात ।
मते कर्मोदयाद्धेतोस्तस्याश्चासम्भवो यतः ॥ १३३७ ।। सूत्रार्थ - और क्रिया के स्वतन्त्रपना असिद्ध है क्योंकि कर्म के फल से होती है क्योंकि कर्मोदय रूप कारण के बिना उसकी असंभवता है।
यावदक्षीणमहरन्थ क्षाणमोहस्य चात्मनः ।
यावत्यस्ति किया नाम तावत्यौदयिकी स्मृता || १३३८1 सूत्रार्थ - सब सरागी और वीतरागी आत्मा की जो कुछ भी किया नाम की है वह सब औदयिकी मानी गई है।
पौरुषो न यथाकामं पुंसः कर्मोदितं प्रति ।
न परं पौरुषापेक्षो वैवापेक्षो हि पौरुषः ॥ १३३९ सूत्रार्थ - कर्मोदय के प्रति पुरुष का इच्छानुसार पुरुषार्थ नहीं है। क्योंकि क्रिया केवल पुरुषार्थ की भी अपेक्षा नहीं रखती है किन्तु देव की अपेक्षा रखती है।
सिद्धो निष्कांक्षितो ज्ञानी कुर्वाणोऽप्युदितां किया ।
निष्कामतः कृतं कर्म न रागाय विरानिाणाम् ॥ १३४० ।। सूत्रार्थ - ज्ञानी औदयिकी क्रिया को करता हुआ भी इच्छा रहित सिद्ध है। विरागियों का इच्छा रहितपने से किया हुवा कार्य राग के लिये नहीं है।
न चाशंक्यं चारित नि:कांक्षः सामान्योऽपि जनः क्वचित् । हेतोः कुतश्चिदन्यत्र
दर्शनातिशयादपि ॥१३४१॥ सूत्रार्थ - और ऐसी आशंका भी न करनी चाहिये कि सामान्य मनुष्य कहीं पर भी सम्यग्दर्शन के अतिशय के बिना किसी अन्य कारण से कांक्षा रहित है।
यहाँ जीव का पुरुषार्थ तो है किन्तु उल्टे पुरुषार्थ को कर्म में डाल दिया है क्योंकि सम्यग्दृष्टि ने उस स्वामित्व छोड़ दिया है और नये पुरुषार्थ द्वारा शुद्धभाव को प्रगट कर दिया है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के शुभाशुभ भाव को कर्मकृत कहने की आगम पद्धति है पर इसका यह अर्थ नहीं है कि सम्यग्दष्टि में बलात् कर्म के उदय से शुभाशुभ भाव होता है। होता है तो स्वयं उसकी पुरुषार्थ की निर्यलता के कारण। इसमें कहीं भी भूल न हो जाय अन्यथा दो द्रव्यों की एकत्वबुद्धिका दोष आवेगा।