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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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यतो निष्कांक्षता नास्ति न्यायात्सद्दर्शन बिना ।
नानिच्छास्त्यक्षजे सौरव्ये तटत्यक्षमनिच्छतः ॥ १३५२ ॥ सूत्रार्थ - क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना इच्छा रहितपना नहीं होता है। न्याय से भी उस अतीन्द्रिय सुख को नहीं चाहने वाले के इन्द्रिय जन्य सुख में अनिच्छा नहीं है।
सदत्यासुरवं माध्याष्टिः स मेच्छति ।
मोहस्य तथा पाकशक्तेः सदभावतोऽजिशम् ॥ १३५३ सूत्रार्थ - उस अतीन्द्रिय सुख को मोह से मिथ्यादृष्टि नहीं चाहता है क्योंकि उसके दर्शन मोह की वैसी उदय शक्ति का निरन्तर सद्भाव है।
उक्तो नि:कांक्षितो भातो गुणः सहर्शनस्य वै ।
अस्तु का नः क्षति प्राक चेत् परीक्षा क्षमता मता ॥ १३ ॥ सूत्रार्थ - नि:कांक्षित भाव कहा गया, जो वास्तव में सम्यग्दर्शन का गुण (अंग) होवे। इसमें हमारी कोई हानि नहीं यदि पहले परीक्षा की जा चुकी हो।
भावार्थ - उपर्युक्त निःकांक्षित भाव स्वात्मानुभूति के साथ ही प्रगट होता है। अतः स्वात्मानुभूति का सद्भाव उसकी परीक्षा है। स्वात्मानुभूति के साथ वह वास्तविक नि:कांक्षित भाव है और बिना उसके होता ही नहीं। यदि कोई कहे भी तो आभास मात्र है। प्रमाण - निःकांक्षित अंग पूरा हुआ। अब कुछ अन्य आगमों के प्रमाण देते हैं -
श्रीसमयसारजी में कहा है जो दुण करेदि करवं कम्मफलेसु तह सक्षधम्मेसु ।
सो णिकंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयलो ॥ २३० 11 सूत्रार्थ - जो चेतयिता कर्मों के फलों के प्रति तथा सर्व धर्मों के प्रति कांक्षा नहीं करता है उसका निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि,टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयता के कारण,सभी कर्म फलों के प्रति तथा समस्त वस्तु धर्मों के प्रति कांक्षा का अभाव होने से निष्काक्ष (निर्वाच्छक) है।
श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है इह जन्मनि विभवादीनमुत्र चक्रित्वकेशवत्वाटीन ।
एकान्तवाददूषितपरसमयानपि च नाकांक्षेत् ॥ २४॥ सूत्रार्थ - इस लोक में ऐश्वर्य सम्पदा पुत्र आदि को और परलोक में चक्रवर्ती नारायण इन्द्र आदि पदों को और एकान्तवाद से दूषित अन्य धर्मों को भी न चाहे। अर्थात् इन्द्रिय भोगों की इच्छा न करना तथा वस्तु को सर्वथा अस्ति या सर्वथा नास्ति, सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य, सर्वथा तत् या सर्वथा अतत्, सर्वथा एक या सर्वथा अनेक, इस प्रकार एकान्त दोष युक्त मानने वाले अन्य विपरीत धर्मों को भी न चाहना नि:कांक्षित अंग है। अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुण्य के फल स्वरूप इन्द्रिय विषयों को आकुलता के निमित्त से दुःख रूप ही जानकर नहीं चाहता है और अन्य धर्मों में वस्तु स्वरूप की विपरीतता होने से उन्हें भी नहीं चाहता है।
श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये ।
पापनीजे सुखेऽजारथा श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥ १२॥ सूत्रार्थ - कर्म का है परवश जिसमें , अन्तसहित, दुःखों से मिला हुवा है उदय जिसका, पाप के बीजभूत ऐसे विषय सुख में इच्छा का न होना निःकांक्षित अंग माना गया है ( विषयसुख के दोषों का दिग्दर्शन श्रीप्रवचनसार गा. ७६ में अच्छा कराया है और ग्रन्थराज श्रीपंचाध्यायी की चौथी पुस्तक में आ चुका है )।