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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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शङ्काकार का आशय - शाकार कहता है कि आप कहते हैं कि सम्यग्दष्टि के पर भव में भोग आकांक्षा नहीं है पर वह व्रत करता हुआ तो प्रत्यक्ष दीखता है और व्रत का फल स्वर्ग है ही। बिना उद्देश्य के तो साधारण व्यक्ति भी कार्य नहीं करता फिर सम्यग्दृष्टि तो महा बुद्धिमान है। वह बिना भोगाभिलाषा के व्रत कैसे पालता है ? यह आप कह नहीं सकते कि क्षीणकषाय जीवों की तरह सरागी सम्यग्दृष्टि को क्रिया से बन्ध नहीं होता क्योंकि दसवें गुणस्थान तक बन्ध तो कहा है। यह भी आप नहीं कह सकते कि सम्यग्दृष्टि उन्हें अबन्धफल वाली जानकर करता है क्योंकि वह तो ज्ञानी है, पदार्थ का स्वरूप जानता है। पदार्थ का स्वरूप जाने बिना सम्यग्दष्टि ही नहीं हो सकता। इसलिये व्रतक्रिया के पालन से यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि के भोगभिलाष है। उसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि सम्यग्दष्टि के मोह का अभाव होने से इच्छा मात्र का अभाव है। उसकी क्रिया शुभ हो चाहे अशुभ हो सब बिना इच्छा ही होती है।
समाधान जैवं यतः सुसिद्धं प्रागस्ति चानिच्छतः किया ।
शभायाश्चाशुभायाश्च को विशेषो विशेषभाक ॥ १३२९॥ गुहार्थ - ऐसा नहीं है कि यह पहले भल्ले प्रकार सिद्ध कर आये हैं कि क्रिया बिना इच्छा के होती है फिर शुभ क्रिया का और अशुभक्रिया का क्या अन्तर विशेषता को धारण करने वाला है। अर्थात् शुभ-अशुभ दोनों क्रियायें बिना इच्छा के होती हैं।
अगली भूमिका - इस समाधान से शिष्य की संतुष्टि नहीं हुई वह कहता है कि अनिष्ट क्रियायें तो बिना इच्छा के होती हैं जैसे जीना, मरना, हानि, जरा रोग। पर क्या कहीं व्रतपालन जैसी किया भी बिना इच्छा के होती है। नहीं होती। अतः सम्यग्दृष्टि परभव में भोगाभिलाष से ही व्रत पालता है। उसके उत्तर में उसे समझायेंगे तो तूने सैद्धान्तिक भूल की है। क्रिया मात्र उदय का कार्य हैं। उसमें शुभाशुभ का भेद नहीं है। अर्थात् ऐसा नहीं है कि अशुभ किया तो उदय से हो और शुभ क्रिया पुरुषार्थ से हो। सब उदय का ही कार्य हैं और दोनों क्रियायें सम्यग्दृष्टि के बिना इच्छा ही होती हैं। पुरुषार्थ तो शुद्ध भाव में है।
शङ्का १३३० से १३३१ तक २ नन्वनिष्टार्थसंयोगरूपा सानिच्छतः क्रिया ।
विशिष्टेष्टार्थसंयोगरूपा साऽजिच्छतः कथम् ॥ १३३० ।। शङ्का--जो अनिष्टार्थसंयोगरूपा क्रिया है वह क्रिया तो बिना इच्छा के होती है। जो विशिष्ट इष्टकार्य संयोगरूपा क्रिया है वह बिना इच्छा कैसे हो सकती है।
सत्क्रिया व्रतरूपा स्यादर्थान्जानिन्छतः स्फुटम् ।
तस्याः स्वतन्त्रसिद्धत्वात्सिद्धं कर्तृत्वमर्थसात् ॥ १३२१ ॥ शङ्का चालू - शुभ क्रिया व्रतरूप होती है। वास्तव में वह बिना इच्छा के प्रगट नहीं हो सकती है। उस क्रिया के स्वतन्त्र ( पुरुषार्थपूर्वक) सिद्ध होने से ( सम्यग्दृष्टि के उसका) कापना वास्तव में सिद्ध है।
समाधान १३२२ से १३४४ तक १३ नैवं यतोऽरत्यनिष्टार्थ: सर्वः कर्मोदयात्मकः ।
तरमान्नाकांक्षते ज्ञानी यावत् कर्म च तत्फलम् ॥ १३३२ ।। सूत्रार्थ - ऐसा नहीं क्योंकि कर्म के उदय स्वरूप सब कुछ अनिष्ट अर्थ है। इसलिये ज्ञानी जितना भी कर्म और उसका फल है उसको नहीं चाहता है।
यत्पुनः कश्चिदिष्टार्थोऽजिष्टार्थः कश्चिदर्थसात् ।
तत्स दृष्टिदोषत्वात् पीतशंरवावलोकवत् ॥ १३३३ ॥ सुत्रार्थ- और जो पदार्थपने से कोई इष्ट अर्थ है और कोई अनिष्ट अर्थ है वह सब दृष्टिदोषपने से है, पीला शंख देखने के समान।