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________________ ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी आस्तामिष्टार्थसंयोगोऽमुत्रभोगाभिलाषतः । स्वार्थसाथैकसंसिद्भिर्न स्यान्नामैहिकात्परम् ।। १३२०॥ सूत्रार्थ - भोगाभिलाष से पर भव में इष्ट पदार्थ का संयोग तो दूर ही रहो किन्तु इससे इस लोक सम्बन्धी सब स्वार्थों की भी सिद्धि नहीं होती है (क्योंकि पदार्थ का संयोग कर्माधीन है। इच्छाधीन नहीं है)। निःसार परफुरत्येष मिध्याकमैकपाकतः । जन्तोरुन्मत्तवच्चापि वार्धातोत्तरंगवतु ॥ १३२१॥ सूत्रार्थ - यह (अभिलाष ) मात्र एक मिथ्यात्व कर्म के उदय से प्राणी के उन्मत्त पुरुष की तरह व्यर्थ प्रगट होती . है जैसे समुद्र में वायु के निमित्त से लहर। ( अर्थात् इच्छा का कारण अज्ञानता है)। शङ्का १३२२ से १३२८ तक ७ ननु कार्यमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । भोगाकांक्षां बिना ज्ञानी तत्कथं व्रतमाचरेत् ॥ १३२२ ।। शंका - कार्य को लक्ष्य किये बिना मन्द भी प्रवृत्त नहीं होता फिर भोग की अभिलाषा के बिना ज्ञानी उस व्रत .' को कैसे आचरण करे? नासिद्धं बन्धमात्रत्वं क्रियायाः फलमद्वयम् । शुभमानं शुभायाः स्यादशुभायाश्चाशुभावहम् ॥ १३२३॥ शङ्का चालू - यह भी असिद्ध नहीं है अर्थात् सिद्ध ही है कि क्रिया का फल केवल बन्ध मात्र है। शुभक्रिया का फल शुभमात्र है और अशुभक्रिया का अशुभफल है। न चाशंक्य क्रियाप्येषा स्यादबन्धफला क्वचित् । दर्शनातिशयानेलो: सरागेऽपि विरागवत ॥ १३२४ ॥ शंङ्का चालू - ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिये कि यह क्रिया भी कहीं सम्यग्दर्शन के अतिशय के कारण से सरागी में भी विरागी की तरह अबन्धफला है। यतः सिद्ध प्रमाणाद्वै नूनं बन्धफला किया । अर्गक क्षीणकषायेभ्योऽवश्य त नसुम्भवात ।। १३२५ ॥ शङ्का चालू - क्योंकि यह बात प्रमाण से भले प्रकार सिद्ध है कि निश्चय से क्रिया बंधफला है क्योंकि क्षीणकषाय गुणस्थानों से पहले-पहले उस बंध का कारण ( रागादि) अवश्य पाया जाता है। सरागे वीतरागे वा लूनमौदायिकी क्रिया । अस्ति बन्धफलातश्यं मोहरयाम्यतमोटयात् ॥ १३२६ ।। शङ्का चालू - सरागी में अथवा वीतरागी में निश्चय से औदयिकी क्रिया अवश्य बन्धफला है क्योंकि मोह, राग, द्वेष में से किसी एक का उदय है। न च वाच्यं स्यात् सदृष्टिः कश्चित् प्रज्ञापराधतः । अपि बन्धफला कत्तिामबन्धफलां विटन || 93२७॥ शङ्का चालू - ऐसा भी नहीं कहना चाहिये कि कोई सम्यग्दष्टि बुद्धि के दोष से उस बन्धफल क्रिया को भी अबंधफला जानकर करे। यतः प्रज्ञाविनाभूतमरित सम्यग्विशेषणम् । तस्याश्चाभावतो नूनं कुतरत्या दिव्यता दृशः ॥ १३२८ ॥ शङ्का चालू - क्योंकि प्रज्ञा से अविनाभूत सम्यक् विशेषण है। उस प्रज्ञा के अभाव से निश्चय से दर्शन की दिव्यता कैसी?
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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