________________
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
विश्वादिभजोsपि विश्व स्वं कुर्वन्यात्मानमात्महा ।
भूत्वा विश्वमयो लोके भर्य नोज्झति जातुचित् || १२७८ ।। सूत्रार्थ - आत्महत्या करने वाला (मिथ्यादृष्टि जीव) विश्व (सब पदार्थों) से भिन्न होता हुआ भी अपनी आत्मा को विश्वरूप करता हुआ, लोक में विश्वमय होकर कभी भी भय को नहीं छोड़ता है।
तात्पर्य सर्वतोऽनित्ये कर्मणः पाकसंभतात् ।
नित्यबुद्ध्या शरीरादौ शान्तो भीतिमुपैति सः ।। १२७९॥ सूत्रार्थ - तात्पर्य यही है कि कर्म के उदय से होने के कारण सब प्रकार से अनित्य शरीर-आदि में नित्य बुद्धि से भ्रान्त वह ( मिथ्यादृष्टि) भय को प्राप्त होता है।
सम्यग्दृष्टिः सटैकत्वं वं समासादयन्निव ।
यावत्कर्मातिरिक्तत्वाच्छुद्धमत्येति चिन्मयम् ॥ १२८० ॥ सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि सदा अपने को एकरूप प्राप्त करता हुआ जो कुछ भी कर्म है उससे रहित होने से शुद्धचिन्मय रूप को प्राप्त होता है।
भावार्थ - सम्यग्दष्टि की अपनेपने की दृष्टि सामान्य स्वरूप पर जमी हुई है जो अजर-अमर सदा एकरूप अविनाशी है और भेदविज्ञान के कारण शेष सब पर को वह स्वभाव से ही कर्मकत संयोगी नाशवान् वस्तु मानता है। होते हुए भी न होते के समान ही हर समय मानता है। अत: उसे हर समय अतीन्द्रिय सुख का ही अनुभव होता है। भय का नहीं। इस सब प्रकरण में भय की नास्ति सामान्यसंवेदन समझना।
शरीर सुखदुःरवादि पुत्रपौत्राटिकं तथा ।
अनित्यं कर्मकार्यत्वादस्वरूपमवैति सः || १२८१॥ सूत्रार्थ - वह शरीर सुख-दुःखादि, पुत्र-पौत्र आदि को सनिय और समस्कार भन मानता है क्योंकि वे कर्मों के कार्य हैं।
लोकोऽयं मे हि चिल्लोको नूनं नित्योऽस्ति सोऽर्थतः ।
नापरोऽलौकिको लोकस्ततो भीतिः कुतोऽस्ति मे 11 १२८२॥ सूत्रार्थ - यह जो चेतनामयी लोक है, वह मेरा लोक है और वह लोक वास्तव में निश्चय से नित्य है। आत्मा से भिन्न लोक अलौकिक लोक नहीं है (किन्तु लौकिक है) इसलये मेरे इस लोक से भय कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता।
स्वात्मसंचेतनादेवं ज्ञानी ज्ञानेकतानतः ।
इस लोकभयान्मुक्तो मुक्तस्तत्कर्मबन्धनात् ॥ १२८३॥ सूत्रार्थ - अपनी (शुद्ध) आत्मा का संचेतन करने से इस प्रकार ज्ञानी एक ज्ञान में तल्लीन होने के कारण से इस लोक भय से मुक्त है और इस लोक भय से होने वाले कर्म बन्ध से भी मुक्त है।
भावार्थ - ज्ञानी सदा सामान्य स्वरूप का संचेतन करने वाला है। अतः उसके भय जनित बन्ध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
___ परलोक भय का निरूपण सूत्र १२८४ से १२९१ तक ८ परलोकः परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक ।
ततः कम्प इव त्रासो भीति: परलोकतोऽरित सा ।। १२८४।। सत्रार्थ- पर भव में भावी पर्याय रूप अंश को धारण करने वाला आत्मा परलोक है और उस परलोक से जो कम्पने के समान भय होता है वह परलोक से भय है।।
भद चेज्जन्म रचलॊके माभून्मे जन्म दुर्गतौ ।।
इत्याहाकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ॥ १२८५ ॥ सूत्रार्थ - अच्छा हो जो स्वर्ग लोक में जन्म हो, मेरा जन्म दुर्गती में न हो, इत्यादि प्रकार से व्याकुल मन पारलौकिक भय है।