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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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मिथ्यादृष्टेस्तदेवास्ति मिथ्याभावैककारणात् ।
तद्विपक्षस्य सद्दृष्टेर्नारित तत्तत्र व्यत्ययात् ॥ १२८६ ॥
सूत्रार्थ - मिथ्यादृष्टि के ही वह परलोकभय होता है क्योंकि इस में केवल एक मिथ्यात्व भाव ही कारण है। उस (मिध्यादृष्टि ) के विपक्षभूत सम्यग्दृष्टि के वह परलोकभय नहीं होता है क्योंकि उस (सम्यग्दृष्टि ) में मिथ्यात्व भाव का अभाव हो गया है ।
बहिर्दृष्टिरनात्मज्ञो
मिथ्यामात्रैकभूमिकः ।
स्वं समासादयत्यज्ञः कर्म कर्मफलात्मकम् ॥ १२८७ ॥
सूत्रार्थ - बाहर में ही आत्मदृष्टि रखने वाला (अर्थात् द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म को ही आत्मा समझने वाला ), अपनी आत्मा को नहीं जानने वाला, केवल एक मिथ्यात्वभूमि में रहने वाला, अज्ञानी अपने को कर्म और कर्मफलस्वरूप प्राप्त (अनुभव ) करता है।
तनो नित्यं भयाक्रान्तो वर्तते भ्रान्तिमानिव ।
मनुते मृगतृष्णायामम्भोभारं जनः कुधीः ॥ १२८८ ॥
सूत्रार्थ - इसलिये नित्य भ्रान्तिमान की तरह भय से व्याप्त रहता है क्योंकि खोटी बुद्धि वाला मनुष्य ( मिथ्यादृष्टि ) मृगतृष्णा (रेत) में जल-समूह मानता है ( देखिये श्रीसमयसार गाथा ४ की टीका ) अर्थात् इन्द्रिय सुखों में सुख मानता है जो रेत में जल के माननेवत् है।
अन्तरात्मा तु निर्भीकः पदं निर्भयमाश्रितः ।
भीतिहेतोरिहावश्यं भ्रान्तेरत्राप्यसंभवात् ॥ १२८९ ॥
सूत्रार्थं किन्तु अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि ) तो निर्भीक है क्योंकि निर्भयपद आश्रित है क्योंकि इस परलोक भय में भी भय की कारण भ्रान्ति की अवश्य ही असंभवता है ।
मिथ्याभ्रान्तिर्यदन्यत्र दर्शनं चान्यवस्तुनः ।
यथा रज्जौ तमोहेतोः सर्वाध्यासाद् द्रवत्यधीः || १२९० ॥
सूत्रार्थं जो दूसरे पदार्थ में अन्य पदार्थ का दर्शन करता है वहीं मिथ्या भ्रान्ति है। जैसे अज्ञानी अन्धकार के कारण से रस्सी में सर्प की कल्पना करने से भागता है। उसी प्रकार जो पर को (परलोकरूप पर्याय को ) आत्मा मानता है उसी के परलोक भय है। जो स्व को स्व मानते हैं उनके काहे का भय
स्वसंवेदन प्रत्यक्षं ज्योतियों वेत्यनन्यसात् ।
स विभेति कुतो न्यायादन्यथाऽभवनादिह ॥ १२९१ ॥
सूत्रार्थ - जो स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्योति तो ( शुद्ध आत्मा को ) अपने से अभिन्न जानता है और यह भी जानता है कि इस (परलोक) में वह ज्योति अन्यथा नहीं हो सकती ( अर्थात् आत्मा पलट कर कुछ पुद्गल नहीं बन जायेगा ) फिर वह किस न्याय से ( कैसे ) डरेगा।
प्रमाण - यह इस लोकभय तथा परलोक भय से रहितपने का विषय ज्यों का त्यों श्रीसमयसार कलश १५५ का है। वह इस प्रकार -
इहलोक परलोक से निर्भयपना
लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मन श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः । लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भी कुतो निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥ १५५ ॥
कलशार्थं - यह चित्स्वरूप लोक ही, भिन्न आत्मा का ( पर से भिन्न रूप परिणमित होते हुए आत्मा का ) शाश्वत् एक और सकल व्यक्त (सर्वकाल में प्रगट ) लोक हैं; क्योंकि मात्र चित्स्वरूप लोक को यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है - अनुभव करता है। यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, उससे भिन्न दूसरा कोई लोक - यह लोक या