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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक ३६५ आँख रूपी द्रव्य को देखता हुआ भी नहीं देखता है अर्थात् श्रद्धा सम्बन्धी भय को ही वास्तव में भय कहते हैं और वह उसके नहीं है। अब अनिष्ट पदार्थ के संयोग से प्रयत्नवान् का उत्तर देते हैं। सन्ति संसारिजीवानां कर्मोशाश्चोदयागताः । मुहान् रज्यन् द्विषस्तत्र तत्फलेनोपयुज्यते ॥ १२६९ ॥ सूत्रार्थ- संसारी जीवों के जो कर्माश उदय अवस्था को प्राप्त होते हैं, उसमें मोह, राग, द्वेष करता हुआ उस कर्म के फल से उपयुक्त होता है। (प्रवचनसार गाथा ४३ ) । एतेन हेतुना ज्ञानी निःशंको न्यायदर्शनात् 1 देशतोऽप्यत्र मूर्च्छायाः शंकाहेतोरसंभवात् ॥ १२७० ॥ सूत्रार्थ - इसी कारण से ज्ञानी निःशंक है। उसमें यह न्याय है कि इसके शंका का कारण एक देश भी मूच्छी नहीं पाई जाती है। सम्यग्दृष्टि के सात भयों से बंध नहीं इसकी भूमिका स्वात्मसञ्चेतनं तस्य कीदृगस्तीति चिन्त्यते । येन कर्मापि कुर्वाणः कर्मणा नोपयुज्यते ॥ १२७१ ॥1 सूत्रार्थ उस ( सम्यग्दृष्टि ) के स्वात्म संचेतन कैसा है यह विचार किया जाता है जिसके द्वारा कर्म को करता हुआ भी कर्म से युक्त नहीं होता है। - सात भयों का वर्णन सूत्र १२७२ से १३१४ तक ४३ तत्र भीतिरिहामुत्र लोके वै वेदनाभयम् । चतुर्थी भीतिस्त्राणं स्यादगुप्तिस्तु पंचमी ॥ १२७२ ॥ भीतिः स्याद्वा तथा मृत्युर्भीतिराकरिमकं ततः । कमादुद्देशिताश्चेति सप्तैताः भीतयः स्मृताः ॥ १२७३ ॥ सूत्रार्थ उनमें (१) इस लोक में भय, (२) परलोक में भय ( ३ ) वेदना भय ( ४ ) अरक्षा भय (५) अगुप्ति भय (६) मृत्यु भय ( ७ ) आकस्मिक भय से सात भय माने गये हैं और क्रम से उद्देश्य ( कथन करने योग्य ) हैं । इस लोक का भय सूत्र १२७४ से १२८३ तक १० तोह लोकलो भीतिः क्रन्दित चात्र जन्मनि । इष्टार्थस्य व्ययो मा भून्मा भून्मेऽनिष्टसंगमः ॥ १२७४ ॥ सूत्रार्थं उनमें इस लोक से भय यह है कि इस जन्म में ऐसा विलाप करना कि मेरे इष्ट पदार्थ नाश न होवे और मेरे अनिष्ट का संयोग न होवे । स्थास्थतीटं धनं नो वा दैवान्मा भूद्दरिद्रता । इत्याद्याधिश्चिता दग्धुं ज्वलितेवादृगात्मनः ॥ १२७५ ॥ सूत्रार्थ यह धन ठहरेगा या नहीं। दैव से दरिद्रता न हो जावे । इत्यादिरूप से मानसिक व्यथारूपी चिता मिध्यादृष्टी आत्मा के जलाने के लिये सदैव जलती रहती है। अर्थादज्ञानिनो भीतिर्भीतिर्न ज्ञानिनः क्वचित् । यतोऽस्ति हेतुतः शेषाद्विशेषश्चानयोर्महान् ॥ १२७६ ॥ सूत्रार्थ - वास्तव में अज्ञानी के भय होता है। ज्ञानी के कहीं पर भी भय नहीं है क्योंकि निम्न हेतु से इन दोनों में महान् विशेषता (अन्तर ) है । अज्ञानी कर्म नोकर्मभावकर्मात्मकं च यत् । सर्वमेवैतन्मोहादद्वैतवादवत् ॥ १२७७ १ मनुते सूत्रार्थं - अज्ञानी द्रव्यकर्म- नोकर्म-भावकर्म स्वरूप जो कुछ है, इस सबको मोह से अद्वैतवाद की तरह मानता है अर्थात् इनको आत्मा ही मानता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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