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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
समाधान सूत्र १२६२ से १२६५ तक ४ अनोत्तरं कुदृष्टिर्यः स सप्तभिर्भयैर्युतः ।
नापि स्पृष्टः सुदृष्टिर्यः स सप्तभिर्भयैर्मनाक ॥ १२६२ ।। सूत्रार्थ - इसका उत्तर यह है कि जो मिथ्यादष्टि है वह सात भयों से युक्त है। जो सम्यग्दृष्टि है वह सात भयों से जरा छुआ भी नहीं है।
परत्रात्मानुभूते विना भीतिः कुतस्तजी ।
भीतिः पर्यायमूठाना नात्मतत्त्वैकचेतसाम् ॥ १२६३ ॥ सूत्रार्थ - वास्तव में परवस्तु में आत्मीय बुद्धि के बिना भय कैसे हो सकता है ? भय पर्यायमूढ़ों के होता है, एक आत्म तत्त्व ( सामान्य के अनुभव करने वालों के नहीं।
ततो भीत्यानुमेयोऽस्ति मिथ्याभावो जिनागमात् ।
सा च भीतिरवश्यं स्याङ्केतुः स्वानुभवक्षतेः ॥ १२६४ ॥ सूत्रार्थ - इसलिये भय (के सद्भाव का अनुमान जिनागम से किया जाता है और वह भय स्वानुभव के विनाश का अवश्य कारण है। अनि शितं
भीतः स्वानुभवच्युतः ।। स्तरथस्य स्वाधिकारत्वाजूनं भीतेरसम्भवात् ॥ १२६५॥ सत्रार्थ - यह सिद्ध है कि पराधीन ( पर वस्तु के आधीन) जीव-पर को ही स्व मानने वाला जीव भयवान और स्वात्मानुभव से रहित होता है। स्वस्थ (स्व में स्थित ) के स्व में अधिकार होने से (स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सहित होने से) निश्चय से भय की असंभवता है (क्योंकि पर.संयोग नाशवान् है। सामान्य अमर है)।
___ शङ्का सूत्र १२६६ से १२६७ तक २ ननु सन्ति चतस्त्रोऽपि संज्ञारतस्यास्य कस्यचित् ।
अर्वाक च तत्परिच्छेटस्थानादस्तित्वसम्भवात् ॥ १२६९ ॥ शंका - किसी-किसी उस सम्यग्दृष्टि के भी चारों संज्ञायें हैं क्योंकि उन संज्ञाओं का, व्युच्छिति गुणस्थान से पहले अस्तित्व पाया जाता है।
भावार्थ - शङ्काकार द्रव्यानुयोग में करणानुयोग की बात पूछता है, वह कहता है कि भय प्रकृति की व्युच्छति तो आठवें गुणस्थान में होती है और आप उसे चौधे में ही निर्भय मानते हो यह कैसे हो सकता है ? ऐसा उसका कहना है। इसका समाधान यह है कि करणानुयोग का कथन केवलज्ञान के आधार पर है वह सूक्ष्म से सूक्ष्म अबुद्धिपूर्वक राग तक को पकड़ता है। द्रव्यानुयोग का कथन अपने ज्ञान गम्य है। जैसे वेद भाव को व्युच्छति तो नववें गुणस्थान में है पर मुनि छठे में ही पूर्ण ब्रह्मचारी होते हैं। उनके जो सूक्ष्म अबुद्धिपूर्वक वेद का भाव रहता है। उसी की अपेक्षा नौवें में व्युच्छति है। इसप्रकार यहाँ श्रद्धा संबंधी-अनन्तानुबंधी संबंधी-दर्शनमोह सम्बन्धी भय की बात थी शङ्काकार ने चारित्र संबंधी भय और अबुद्धिपूर्वक भय की अपेक्षा कह दिया है। चारित्र संबंधी भय तो ज्ञानियों को भी होता है पर उसका यहाँ प्रकरण नहीं है। अब उस चारित्रसंबंधी भय के आधार पर वह अगले सत्र में कहता है कि उसके भय प्रत्यक्ष देखा जाता है और उस भय का उपाय करता भी वह प्रत्यक्ष देखा जाता है।
तत्कथं नाम निर्भीकः सर्वतो दृष्टितालयि ।
अप्यनिष्टार्थसंयोगादरत्यध्यक्ष प्रयत्नवान् ॥ १२६७ ॥ शंका चालू - इसलिये सम्यग्दृष्टि भी सब प्रकार से भय रहित कैसे हैं और वह तो अनिष्ट पदार्थ के संयोग से प्रयलवान भी प्रत्यक्ष देखा जाता है।
समाधान सूत्र १२६८ से १२७१ तक ४ सत्यं भीकोऽपि निर्भीकरतत्रतामित्वाभावतः ।
रूपि दव्य यथा चक्षः पश्यदपि न पश्यति ॥ १२६८॥ सुत्रार्थ- ठीक है, वह भयसहित होकर भी निर्भय है क्योंकि उसके उनके स्वामीपना-आदि का अभाव है जैसे