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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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न चाशय परोक्षास्ते सदृष्टेोचराः कुतः ।
तैः सह सन्निकर्षस्य साक्षिकरयाप्यसम्भवात् ॥ १२५ ।। सूत्रार्थ - ऐसी आशङ्का नहीं करनी चाहिये कि वे परोक्ष हैं। सम्यग्दृष्टि के गोचर कैसे हो सकते हैं क्योंकि उनके साथ इन्द्रिय सत्रिकर्ष की भी असंभवता है।
अस्ति तत्रापि सम्यक्त्वमाहात्म्यं महता महत् ।
यटस्य जगतो ज्ञानमस्त्यारितक्यपुररसरम् ॥ १२५५ ।। सूत्रार्थ - वहाँ महापुरुषों के सम्यक्त्व का महान् महात्म्य है कि इसके जगत् का ज्ञान आस्तिक्यपूर्वक होता है।
लासम्भवमिदं यस्मात् स्वभावोsतर्कगोचरः।
अलिवागलिशयः सर्वो योगिना योगशक्तिवत् ॥ १२५६ ॥ सूत्रार्थ - यह असंभव नहीं है क्योंकि स्वभाव तर्क के अगोचर है। यह सब अनिर्वचनीय अतिशय है। योगियों की योगशक्ति के समान (क्योंकि सम्यग्दृष्टि सब कुछ आगम चक्षु से देखता है)।
अस्ति चामपरिच्छेदि ज्ञानं सम्यग्दृगात्मनः ।
स्वसंवेदनप्रत्यक्षं शुद्धं सिद्धारपदोपमम् ॥ १२५७॥ सुत्रार्थ - सम्यग्दष्टि आत्मा के आत्मा को जाननेवाला ज्ञान है जो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, शुद्ध और सिद्ध पद के समान है।
यत्रानुभूयमानेऽपि सवेशबालमात्मनि ।
मिथ्याकर्मविपाकाद्वै नानुभूति: शरीरिणाम् ॥ १२५८॥ सूत्रार्थ - यद्यपि बालक से लेकर बड़े तक सब के द्वारा आत्मा अनुभव करने योग्य होने पर भी, मिथ्यात्व कर्म के उदय में जुड़ने से वास्तव में जीवों के अनुभूति नहीं है।
सम्यग्दृष्टे: कुदृष्टेश्च स्वादुभेटोऽस्ति सरतुलि ।
न तन वास्ततो भेटो वस्तसीन्नोऽनतिक्रमात ॥ १२५९॥ सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के वस्तु में स्वाद भेद है किन्तु वहाँ वस्तु में वास्तविक भेद नहीं है क्योंकि वस्तुसीमा का उल्लंघन नहीं होता है।
भावार्थ - जैसे इस समय एक सम्यग्दृष्टि मनुष्य पर्याय में है और एक मिथ्यादृष्टि मनुष्य पर्याय में है। सम्यग्दृष्टि भेदविज्ञान के महात्म्य के कारण पर्याय को गौण करके सामान्य का वेदन करता है। मिथ्यादष्टि भेदविज्ञान के अभाव के कारण सामान्य स्वरूप से अपरिचित है। विशेष को (पर्याय को) ही पूर्ण वस्तु समझकर "बस इतना ही मैं हूँ" ऐसा वेदन करता है। यद्यपि वस्तु दोनों की एक जैसी है पर स्वाद में भेद है। सामान्य का वेदन अतीन्द्रिय सुख रूप है। क्योंकि पर्याय नाशवान् है इसलिये पर्याय का वेदन भय युक्त है दुःखरूप है। इस विषय का विवेचन चौथी पुस्तक में हो चुका है।
तत्र तात्पर्यमेतत् तत्वैकत्वेऽपि यो क्षमः ।
शङ्काया: सोऽपराधोऽस्ति सा तु मिथ्योपजीविनी || १२६० ।। सूत्रार्थ- उसमें यह ही तात्पर्य है कि तत्त्व के एक होने पर भी जो भ्रम है वह शङ्का का अपराध है और वह शङ्का तो मिथ्यात्व के साथ होने वाली है।
शङ्का ननु शंकाकृतो दोषो यो मिथ्यानुभवो नृणाम् ।
सा शंकापि न्यायादस्ति मिथ्योपजीविनी ।। १२३१॥ सूत्रार्थ - जो जीवों के मिथ्या अनुभव है वह शंकाकृत दोष है। मिथ्यात्व से अविनाभावी वह शंका भी किस न्याय से है ?