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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
सम्यग्दर्शन के लक्षणभूत आठ अंगों का निरूपण
सूत्र १२४५ से १५८६ तक ३४२ ननु सहर्शनस्यैतल्लक्ष्यस्य स्यादशेषतः ।
किमथास्त्यापर किचिल्लक्षणं तद्वदाद्य नः ॥ १२५॥ शंका- लक्ष्य रूप सम्यग्दर्शन का यह सम्पूर्णतया लक्षण है या कुछ और भी लक्षण है वह आप हमें कहिये ?
सम्यग्दर्शनमष्टाङ्गमस्ति सिद्धं जगत्त्रये ।
लक्षणं च गुणश्चाई शब्दाश्चैकार्थवाचकाः ॥ १२४६ ।। सूत्रार्थ - सम्यग्दर्शन आठ अंग सहित है यह तीन जगत् में प्रसिद्ध है। लक्षण, गुण, अङ्ग ये एकार्थ वाचक शब्द हैं।
निःशङ्कितं यथानाम निष्कांक्षितमतः परम् । विचिकित्सावर्ज चापि तथा दृष्टेरमूढता ॥ १२४७ ।। उपबृहणनामा च सुस्थितीकरणं तथा ।
वात्सल्य च यथाम्नायाद गुणोऽप्यस्ति प्रभावना ॥ १२४८॥ सूत्रार्थ - निःशंडित नाम', निष्काक्षित', इसके बाद विचिकित्सा रहितपना', और दृष्टि की अमूढ़ता, उपवृहणनाम', सुस्थितिकरण', वात्सल्य , और प्रभावना', ये आम्नाय के अनुसार सम्यक्त्व के गुण ( लक्षण-अंग ) हैं।
पाँचवाँ अवान्तर अधिकार शितिका १९१९८१४ तक ६६ शड़ा भी: साध्वर्स भीतिर्भयमेकाभिधा अमी ।
तस्य निष्कान्तितो जातो भावो जिःशलिलोऽर्थतः ॥ १२४९॥ सूत्रार्थ-शा, भी, साध्वस, भीति, भय से सब एक नाम वाचक हैं। उस (भय)के निकल जाने से जो भाव उत्पन्न होता है, वह वास्तन्त्र में निशङ्कित अंग है।
अर्थवाशादत्र सूने शंका न स्यान्मनीषिणाम् ।।
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः स्युस्तदास्तिक्यगोचराः ॥ १२५० ॥ सूत्रार्थ - इसका यह भी अभिप्राय है कि इस गुण के कारण सूत्र ( जिनागम ) में बुद्धिमानों को ( सम्यग्दष्टियों को) शङ्का नहीं होती क्योंकि सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ उनके आस्तिक्य गोचर हो जाते हैं।
भावार्थ - पहले कह आये है कि सम्यग्दृष्टि प्रत्येक पदार्थ को आगम चक्षु से देखते हैं और आगम चक्ष से देखने वालों को यह सूक्ष्मादि पदार्थ प्रत्यक्ष ज्ञानवत् आस्तिक्य गोचर हो जाते हैं निशङ्कित अंग की दो परिभाषाएं हो गई। एक तो भय का न होना दूसरे आगम में किसी प्रकार का संदेह न होना। अब सूक्ष्मादि पदार्थ किनको कहते हैं यह बताते हैं।
तन्त्र धर्मादय सूक्ष्मा: सूक्ष्माः कालाणवोsणवः ।
अस्ति सूक्ष्मत्वमेतेषां लिङ्गस्याक्षरदर्शनात् ॥ १२५१॥ सूत्रार्थ - उनमें धर्म-आदिक सूक्ष्म है तथा कालाणु और पुद्गल परमाणु सूक्ष्म हैं। इनके सूक्ष्मपना है क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा लिङ्ग का (लक्षण का) अदर्शन है ( जानने में नहीं आता है)।
अज्लरिता यथा द्वीपसरिन्नाथनगाधिपाः ।
दरार्था भाविनोऽतीता रामरावणचक्रिणः ॥ १२५२॥ सूत्रार्थ - अन्तरित पदार्थ ये हैं जैसे द्वीप, समुद्र, पर्वत इत्यादिक दूरार्थ पदार्थ यह है - भविष्यत और भूतकाल में होने वाले राम, रावण, चक्रवर्ती इत्यादिक।
न स्यान्मिथ्यादृशो ज्ञानमेतेषां क्वाप्यसंशयम् ।
संशयस्याटिहेतोः दुइमोहस्योदयात सतः ॥ १२५३॥ सूत्रार्थ - मिथ्यादृष्टि के इनका ज्ञान कभी भी संशय रहित नहीं होता। वास्तव में संशय का प्रथम कारण दर्शन, मोह के उदय का सद्भाव है।