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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात् । वात्सल्यं तद्गुणोत्कर्षहेतवे सोद्यतं मनः ॥ १२३८ ॥
सूत्रार्थ उसमें (दर्शन मोह के ) उपशम हो जाने से वचन शरीर और मन की उद्धतता न होना भक्ति है। और उन परमेष्ठियों के गुणों का अपने आत्मा में उत्कर्ष करने के लिये उद्यमवान् मन वात्सल्यता है।
भक्ति नाम वात्सल्यं न स्यात् संवेगमन्तरा ।
स संवेगो दृशो लक्ष्म द्वावेतावुपलक्षणम् ॥ १२३९ ॥
सूत्रार्थ भक्ति या वात्सल्य संवेग के बिना नहीं होते। वह संवेग सम्यग्दर्शन का लक्षण है और ये दोनों सम्यक्त्व के उपलक्षण हैं ।
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सम्यक्त्व के उपलक्षण गर्हा, निन्दा सूत्र १२४० से १२४४ तक ५ निन्दा १२४० से १२४१ तक
दृमोहस्योदयाभावात् प्रसिद्धः प्रथमो गुणः । तत्राभिव्यञ्जकं तसान्निन्दनं चापि गर्हणम् 11 १२४० ॥
सूत्रार्थ दर्शनमोह के उदय के अभाव से प्रसिद्ध प्रशम गुण है उसको प्रगट करने वाला बाह्य रूप से निन्दा और ग है। जिन्दनं तंत्र दुर्वाररागादौ दुष्टकर्मणि ।
पश्चात्तापकरो बन्धो नापेक्ष्यो नाप्युपेक्षितः || १२४१ ॥
सूत्रार्थ - उस निन्दा गर्हा में निन्दा यह है कि कठिनता से दूर करने योग्य रागादि दुष्ट कर्मों के होने पर पश्चात्तापकर बन्ध होता है जो बन्ध न तो अपेक्षणीय है और न उपेक्षणीय है।
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भावार्थ अपेक्षणीय तो इसलिये नहीं है कि ज्ञानी बन्ध को नहीं चाहता और वह बन्ध का कर्त्ता नहीं है और उपेक्षणीय इसलिये नहीं है कि वह बन्धुवस्तु से है जरूर पश्चातापकर इसलिये है कि जबतक वह बन्ध रहेगा तबतक जीव स्वाभाविक पूर्ण सुख को न पा सकेगा। कर्मों की शक्ति तथा रागादि दोषों की संतति का ऐसा विचार करना भी निन्दा है । गर्हा सूत्र ९२४२-४३-४४
गर्हणं तत्परित्यागः पञ्चगुर्वात्मसाक्षिकः ।
निष्प्रमादतया नूनं शक्लितः कर्महानये || १२४२ ॥
सूत्रार्थ - ग उस रागादि का परित्याग है जो पंचपरमेष्ठी और अपनी आत्मा की साक्षीपूर्वक प्रमाद रहित होकर निश्चय से शक्ति अनुसार कर्म के क्षय के लिये किया जाता है।
अर्थादेतद्द्वयं सूक्तं सम्यक्त्वस्योपलक्षणम् ।
प्रशमस्य कषायामनुदे काविशेषतः || १२४३ ॥
सूत्रार्थ वास्तव में यह दोनों सम्यक्त्व के उपलक्षण भलेप्रकार कहे गये हैं। क्योंकि प्रशम गुण के समान इन दोनों में कषायों के अनुब्रेक ( उपशम-शमन ढीलेपड़ना) की अपेक्षा से कोई विशेषता नहीं है।
शेषमुक्तं यथान्नायाज्ज्ञातव्यं परमागमात् ।
आगमान्धेः परं पारं मादृग्गन्तुं क्षमः कथम् ॥ १२४४
सूत्रार्थ - शेष कथन आम्नाय अनुसार परमागम से जानना चाहिये क्योंकि आगम रूपी समुद्र के पार को पाने के लिये मेरे जैसा पुरुष कैसे समर्थ हो सकता है।
भावार्थ - यद्यपि श्री अमृतचन्द्रजी ने सारे आगम रूपी समुद्र का दोहन करके ऐसा अलौकिक शास्त्र बनाया है। इतना स्पष्टीकरण और है कहाँ ? फिर भी अपनी निन्दा सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। तद्नुसार कहते हैं कि मुझ जैसा व्यक्ति क्या आगम का पार पा सकता है? कुछ नहीं । बतलाईये हमारे गुरुदेव जो साक्षात् छठे सातवें गुणस्थान के गुरु थे वे तो अपने को यह कहते हैं अब हम जैसे तुच्छ टीकाकार अपने को क्या कहें ? वास्तव में वस्तु स्वभाव केवली गम्य है। छद्मस्थ का ज्ञान तो समुद्र में बिन्दुवत है यह क्षायोपशमिक ज्ञान अत्यन्त हेय है चौथो पुस्तक में कह ही आये हैं ।