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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
आस्तिक्य गुण है। उसपर शिष्य पूछता है कि प्रत्यक्ष तो एक केवलज्ञान है और उसी में ये बातें झलकती हैं। सम्यग्दृष्टि के तो मतिश्रुत है। उसे इन सब बातों का कैसे प्रत्यक्ष अनुभव हो गया है तो उत्तर देते हैं कि स्वात्मानुभूति में मतिश्रुत प्रत्यक्ष है। आत्मप्रत्यक्ष होने से तो उसे आत्मा की श्रद्धा है और उससे भिन्न सब पर है इस प्रकार पर की श्रद्धा है। तथा सम्यक्त्व के कारण उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान होने से वह प्रत्येक पदार्थ को आगमचक्ष से देखता है। अत: उसे केवली, गणधरवत् सब कुछ का आस्तिक्य है।( श्रीप्रवचनसार गाथा २३४, २३५) यह सम्यग्दष्टि का आस्तिक्य गुण है।
आगम प्रमाण तथा अगले कथन की भूमिका संवेओ णिचेओ णिदण गरुहा य उवसमो भत्ती ।
वच्छल्लं अणुकंपा अट्ट गुणा हुंति सम्मत्ते ॥ सूत्रार्थ - संवेग, निर्वेद र निन्दा', गौं', उपशम , भक्ति वात्सल्य और अनुकम्पा ये सम्यक्त्व के आठ गुण हैं।
भावार्थ (A) - श्री अमृतचन्द्रजी कहते हैं कि यद्यपि आगम में सम्यक्त्व के उपर्युक्त आठ गुण लिखे हैं पर वास्तव में ये चार ही हैं। वह इस प्रकार कि जिसको अस्ति से संवेग कहते हैं उसी को नास्ति से निर्वेद कहते हैं जैसे धर्म के कारण में धर्म के फल में और धर्मधारी साधर्मियों तथा परमेष्ठियों में अनुराग संवेग है तो अधर्म में,अधर्म के कारण में, अधर्म के फल में, अधर्मियों में इच्छा का अभाव निर्वेद है। इस प्रकार ये दो नाम से एक ही वस्तु है। दूसरी बात यह है कि कोई पूछे कि सम्यक्त्व का लक्षण है तो उत्तर है 'संवेग'। कोई पूछे कि संवेग का लक्षण क्या है अर्थात् संवेग किसे कहते हैं तो उत्तर है अरहंतादि की भक्ति और वात्सल्यता को। अत: यह भक्ति और वात्सल्यता संवेग के लक्षण है और सम्यस्लकेपलक्षणा है। जो लक्षणाला हो उसे उपलक्षण कहते हैं। अतः भक्ति और वात्सल्यता संवेग के ही पेट में आ जाने से भिन वस्तु नहीं रहे। इस प्रकार संवेग, निर्वेद भक्ति और वात्सल्यता चारों संवेग ही हैं।
() प्रशम में मानादि कषायें फीके पड़ जाते हैं। अत: फिर सम्यग्दृष्टि के मुख से अपनी प्रशंसा का शब्द नहीं निकलता किन्तु निन्दा गर्दा ही निकलती है। उसकी दृष्टि सामान्य स्वभाव पर है। वह जानता है कि आत्मा का स्वभाव अनन्त चतुष्टय है और मेरी पर्याय में उसका लोप है। उसके लोपका कारण अर्थात् उसकी प्रगटता को इन रागादि कषाय भावों ने रोका हुआ है। ये अत्यन्त हेय, निन्दनीय और घुणामय हैं। बन्ध के करने वाले हैं तथा मेरे सुख को रोके हुए हैं। इसप्रकार अपनी और उन रागादिक की आलोचना निन्दा है तथा उनके त्याग का निरन्तर प्रयत्न अर्थात् निज महिमावन्त स्वरूप के उन अवलम्बन द्वारा रागादि तुच्छ वृत्ति रूप न होना गहीं है। जो रागादिक का त्याग है वही तो प्रशम है। प्रशम अस्ति से है। रागादिक का त्याग नास्ति से है। या यूं कहिये कि प्रशम सम्यक्त्व का लक्षण है तथा निन्दा गर्दा प्रशम का लक्षण होने से सम्यक्त्व का उपलक्षण है। इसप्रकार निन्दा गर्दा प्रशम के पेट में आ जाने से तीनों एक ही हैं। इसप्रकार ये सम्यक्त्व के आठ गुण आगम में कहे जाने पर भी इन्हीं चार के अन्तर्भूत हैं। कुछ विशेष वस्तु नहीं है। सोई कहते हैं -
उक्तगाथार्थसूत्रऽपि प्रशमादिचतुष्टयम् ।
नातिरिक्तं यतोऽरत्यत्र लक्षणस्योपलक्षणम् ॥ १२३५ ।। सूत्रार्थ - उक्त गाथा सूत्र के अर्थ में भी प्रशम-आदि चारों ही कहे गये हैं, अधिक कुछ नहीं क्योंकि यहाँ लक्षण के उपलक्षण हैं।
सम्यक्त्व के उपलक्षण भक्ति, वात्सल्यता
सूत्र १२३६ से १२३९ तक ४ अरत्युपलक्षणं यसलक्षणस्यापि लक्षणम् ।
तत्तथास्त्यादिलक्ष्यस्य लक्षणं चोत्तरस्य तत् ॥१२३६ ॥ सूत्रार्थ - जो उपलक्षण है वह लक्षण का भी लक्षण है। वह इस प्रकार कि जो उत्तर का ( लक्षण का) लक्षण है वह आदि-लक्ष्य का उपलक्षण है।
यथा सम्यक्त्वभावस्य संवेगो लक्षणं गुणः।
स चोपलक्ष्यते भक्त्या वात्सल्येनाथवार्हताम् ॥ १२३७ ।। सूत्रार्थ - 'जैसे सम्यक्त्व भाव का संवेगगुण लक्षण है वह ( संवेग गुण) अर्हन्तों की भक्ति अथवा वात्सल्य से उपलक्षित किया जाता है।