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द्वितीय खण्ड/पंचय पुस्तक
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शंका सूत्र १२२८ से १२२९ तक २ ननु वै केवलज्ञानमेकं प्रत्यक्षमर्थतः ।
न प्रत्यक्ष कदाचित्तच्छेषज्ञानचतुष्टयम् ॥ १२२८॥ सूत्रार्थ - शङ्का वास्तव में पदार्थरूप से एक केवलज्ञान ही प्रत्यक्ष है। शेष चार ज्ञान कभी भी प्रत्यक्ष नहीं है। फिर सम्यग्दृष्टि के इन सब बातों का आस्तिक्य कैसे है ?
यदि वा देशतोऽध्यक्षमाक्ष्यं स्वात्मसुरवादिवत् ।।
स्वसंवेदनप्रत्यक्षमारितम्यं तत्कुतोऽर्थतः ।। १२२० ।। शङ्का चालू - अथवा इन्द्रिय जन्य अपने सुखादि (साता-असाता जन्य सुख-दुःख) एकदेश प्रत्यक्ष है। फिर स्वसंवेदन प्रत्यक्ष रूप आस्तिक्य वास्तविक प्रत्यक्ष कैसे है ? अर्थात् शिष्य सख-दुःख को तो प्रत्यक्ष मानता है पर स्वात्मानुभूति रूप आत्मप्रत्यक्ष नहीं मानता।
समाधान सूत्र १२३० से १२३४ तक ५ सत्यमाद्याद्वयं ज्ञानं परोक्ष परसविटि ।
प्रत्यक्ष स्वानुभूतौ तु दङ्मोहोपशमादितः ॥ १२३० ।। सूत्रार्थ - ठीक है आदि के दो ज्ञान ( मति-श्रुत) पर के जानने में परोक्ष हैं किन्तु दर्शनमोह के उपशम आदि से स्वात्मानुभूति में प्रत्यक्ष हैं ( यह विषय तीसरी पुस्तक में स्पष्ट हो चुका है)।
स्वात्मानुभूतिमानं स्याटास्तिक्यं परमो गुणः ।
भवेन्मा वा परद्रव्ये ज्ञालमानं परत्वतः || १२३१॥ सूत्रार्थ - 'स्वात्मानुभूति' मात्र आस्तिक्य परमगुण है। चाहे परद्रव्य में जानना हो या न हो क्योंकि वह तो परद्रव्य ही है।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि के मति श्रुतज्ञान द्वारा आत्मप्रत्यक्ष तो हो ही जाता है इसलिये उसे स्व के आस्तिक्य का तो प्रत्यक्ष है और उससे जो भिन्न है वह पर है इस प्रकार पर के आस्तिक्य का भी निश्चय है। पर के विशेष भेदों की या उसके स्वरूपकी जानकारी केवली को है और उसे नहीं है। इससे आस्तिक्य में कोई अन्तर नहीं पड़ता। उसकी जानकारी उसे हो या न हो किन्तु यह तो वह जानता ही है कि ये पर हैं। बस उनकी पर रूपसे श्रद्धा होना ही उनका आस्तिक्य है।
अयि तत्र परोक्षत्वे जीवाटौ परवस्तुनि ।
गाढ़ प्रतीतिरस्यारित यथा सम्यग्दृगात्मनः ॥ १२३२ ।। सूत्रार्थ - और वहाँ जीवादि परवस्तु के परोक्ष होने पर भी इस सम्यग्दृष्टि आत्मा के गाढ़ प्रतीति है।
ज तथास्ति पतीतिर्वा तरिमन मिथ्यादृशः स्फुटम् ।
दृमोहस्योदयात्तत्र क्षान्ते: सद्भावतोऽनिशम् ॥ १२३३ ।। सूत्रार्थ - जैसी प्रतीति इस सम्यग्दृष्टि आत्मा के है वैसी प्रतीति उस मिथ्यादृष्टि के प्रकट नहीं है क्योंकि उसमें दर्शनमोह के उदय में जुड़ने से धान्ति का सद्भाव निरन्तर पाया जाता है।
ततः सिद्धमिदं सम्यक युक्तिरवानुभवातामात् ।
सम्यक्त्वेनाविजाभूतमरत्यास्तिक्यं गुणो महान् ॥ १२३४।। सुत्रार्थ- इसलिये यह भले प्रकार युक्ति,स्वानुभव और आगम से सिद्ध है कि सम्यक्व से अविनाभावी आस्तिक्य महान्गुण है सम्यक्त्व और स्वात्मानुभूति के बिना आस्तिक्याभास है। मिथ्या है।
भावार्थ - (सूत्र १२२० से १२३४ तक )- जिस प्रकार केवली भगवान् में वस्तु स्वभाव का प्रत्यक्ष है। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को आगम के बल से वस्तु स्वभाव अनुभव प्रत्यक्ष है। उसे स्व का, पर का, स्वतः सिद्ध छः द्रव्यों का, जीव के अनादि से कर्ता-भोक्तापने का, उसके फलस्वरूपचार गतियों में भ्रमणका, फिर स्वपरका भेदविज्ञान करके सामान्य के आश्रय से शुद्धभाव रूप सम्यक्त्व प्रगट करने का, फिर उस सामान्य में स्थिरता करके चारित्र प्रगट करने का, उसके फलस्वरूप यहाँ एकदेश अतीन्द्रिय सुख का, मोक्ष में पूर्ण अतीन्द्रिय सुख का पूर्ण विश्वास है। यही उसका