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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
अस्त्यात्मा जीवसंज्ञो य: स्वत: सिद्धोऽप्यमूर्तिमान् ।
चेतनः स्यादजीवस्तु यातानप्यरत्यचेतनः ॥ १२२१ ॥ सूत्रार्थ - आत्मा है। जीव उसका नाम है। जो स्वतः सिद्ध, अमूर्तिक और चेतन है और अजीव तो जितना भी अचेतन है वह है।
अस्त्यात्माऽनादितो बद्धः कर्मभिः कार्मणात्मकैः।
का-भोक्ता च तेषां हि तत्क्षयान्मोक्षभाग्भवेत् ॥ १२२२॥ सूत्रार्थ- आत्मा अनादि से कार्मण स्वरूप कर्मों के द्वाराबद्ध है। अज्ञानी है और वास्तव में उनकाकर्ता और भोक्ता । है। उनके नाश से मोक्ष पाने वाला होता है। (यह निमित्त की अपेक्षा कथन है)।
अस्ति पुण्यं च पार्य च तद्धेतुस्तत्फलं च वै ।
आस्त्रवाद्यास्तथा सन्ति तस्य संसारिणोऽनिशम् || १२२३॥ सूत्रार्थ - निश्चय से पुण्य है और पाप है। उनका कारण है और उनका फल भी है तथा आस्त्रव-आदिक उस संसारी के निरन्तर है।
भावार्थ - ६८ कर्म प्रकृतियाँ पुण्य रूप हैं। उनका कारण जीव का शुभ भाव है। उसका फल इष्टसंयोग आदि है।१०० पापकतियाँ हैं। उनका कारण जीव का अशभ भाव है। इसका फल अनिष्टसंयोग आदि है।जीव का शुभाशुभ भाव आस्त्रव है। उसके निमित्त से प्रकति-बंध आदि चार प्रकार का बंध है। जीव का शद्ध भाव संवर निर्जरा है उसका फल आगामी कर्मास्रव और बंध का अभाव तथा पूर्वबद्ध की निर्जरा है। जीव का पूर्ण शुद्धभाव तथा द्रव्यकर्म, भावकर्म नोकर्म का पूर्ण अभाव मोक्ष है। ऐसी उसे आस्तिक्य की श्रद्धा है।
अरत्येव पर्ययादेशाद् बन्धो मोक्षश्च तत्फलम् ।।
अथ शुद्धलयादेशाच्छुद्धः सर्वोऽपि सर्तटा ॥ १२२४॥ सूत्रार्थ - पर्याय के कथन से ( विशेष दृष्टि से ) बन्ध है, मोक्ष है और बन्ध का फल दुःख और मोक्ष का फल अतीन्द्रिय सुख है और शुद्ध नय के कथन से (सामान्य दृष्टि से ) सब ही सदा शुद्ध हैं। इसका खुलासा चौथी पुस्तक में हो चुका है।
तत्राय जीवसंज्ञो य: स्वसंवेटाश्चिदात्मकः ।
सोऽहमन्ये तु रागाद्या हेया: पौवालिका अमी ॥ १२२५॥ सूत्रार्थ - उनमें यह जीव नाम का पदार्थ जो स्वसंवेद्य है, चेतनस्वरूप है, वह तो मैं हूँ ( उपादेय हूँ) और अन्य जो ये पौद्रलिक रागादिक हैं ये 'हेय' हैं।
इत्याद्यनाटिजीतादि वस्तुजातं यतोऽरिवलम् ।
निश्चयव्यवहाराभ्यामास्तिक्यं तत्तथामतिः ॥ १२२६ ।। सूत्रार्थ - इत्यादि अनादि जीवादि जो भी यस्तु समूह है वह सब निश्चय व्यवहार से सत् रूप है। उसमें वैसी ही बुद्धि का होना आस्तिक्य गुण है। सम्यक्त्वेनातिनाभूतं
स्वानुभूत्यैकलक्षणम् । आरित्तक्यंलाम सम्यक्तत् मिथ्यारितक्य ततोऽन्यथा ॥ १२२७॥ सूत्रार्थ - जो सम्यक्त्व से अविनाभाषी है और स्वानुभूति जिसका एक लक्षण है वह आस्तिक्य सम्यक् ( सच्चा) है। उससे विपरीत आस्तिक्य मिथ्या (झूठा) है। ___ भावार्थ - आगम के आधार से किसी-किसी मिथ्यादृष्टि में भी वह आस्तिक्य पाया जाता है पर स्वात्मानुभूति न होने से वह आस्तिक्य गधे के सींगवत् मिथ्या है। आस्तिक्याभास है जो सम्यक्त्व और स्वात्मानुभूति से अविनाभावी है वही सच्चा आस्तिक्य गुण है और वही सम्यक्त्व का सहचर लक्षण है क्योंकि बिना आत्मप्रत्यक्ष हुये उसकी आस्तिक्यता तो कल्पना मात्र है।