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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक मिथ्या यत्परतः स्वस्य स्वरमाद्वा परजन्मिनाम् । इच्छेत्तत्सुखदुःखादि मृत्युर्वा जीवितं मनाक् ॥ १२१६ ॥ सूत्रार्थ जो पर से स्व का अथवा स्व से पर जीवों का कुछ भी सुख-दुःख आदि, मृत्यु अथवा जीवन चाहे, वह मिथ्या है। यहाँ श्रीसमयसारजी के बंध अधिकार वाला भाव है। ३५७ अस्ति यस्यैतदज्ञानं मिथ्यादृष्टिः स शल्यवान् । अज्ञानाद्धन्तुकामोऽपि क्षमो हन्तुं न चापरम् ॥ १२१७ ॥ सूत्रार्थं जिसके यह अज्ञान है वह मिध्यादृष्टि शल्यवान् है और अज्ञान से दूसरे को मारने का इच्छुक होता हुआ भी मारने के लिये समर्थ नहीं है। - समता सर्वभूतेषु यानुकम्पा परत्र सा । अर्थतः स्वानुकम्पा स्याच्छन्न्यतच्छल्यवर्जनात् ॥ १२१८ ।। - सूत्रार्थ जो सब जीवों में समता है, वह पर में अनुकम्पा है। वास्तव में स्व अनुकम्पा तो काँटे के समान शल्य के छोड़ने से होती है। मिध्यात्व, माया, निदान को शल्य कहते हैं। इनको छोड़ना ही स्वदया है। यही आत्मा को सबसे अधिक दुःख होते हैं। रागाद्यशुद्धभावानां सद्भावे बन्ध एव हि । न बन्धस्तदसद्भावे तद्विधेया कृपात्मनि ॥ १२१२ ॥ सूत्रार्थ - राग आदि अशुभ भावों के सद्भाव में निश्चय से बंध ही है। उन (रागादि भावों ) के असद्भाव में बन्ध नहीं है। इसलिये अपनी आत्मा पर कृपा करनी चाहिये। भावार्थ (सूत्र १२१४ से १२१९ तक ) वस्तु स्वभाव ऐसा है कि जगत् का प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव में स्थित रहता हुआ ही प्रति समय अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता से परिणमन किया करता है। अतः एक द्रव्य दूसरे में कुछ नहीं कर सकता। तथा द्रव्यों का परस्पर जो संयोग-वियोग है वह अपने-अपने कर्माधीन है। यह निमित्त कारण की अपेक्षा वस्तु का कथन है। जब ऐसा वस्तु स्वभाव है तो दूसरा प्राणी हमारे जीने-मरने, सुख-दुःख में या हम उसके जीने-मरने, सुख-दुःख में न उपादान कारण हैं न निमित्त कारण हैं। ऐसे वस्तु स्वभाव को ज्ञानी जानते हैं। अतः उनका किसी पर वैरभाव नहीं होता किन्तु मध्यस्थ भाव ही रहता है। वस्तु स्वभाव को नहीं जानने वाले अज्ञानियों की ऐसी श्रद्धा है कि इसने ही इसका ऐसा किया है" अतः यह कोरा वैरभाव है और कुछ नहीं और इसमें केवल अज्ञानता कारण है । ( २ ) ज्ञानी यह भी जानता है कि अपना बुरा अपने रागभाव से है और अपना भला अपने शुद्धभाव से है। अतः वह राग भाव को छोड़कर शुद्ध भाव में वर्तता है। बस यहीं वास्तव में सच्ची स्वकृपा (अनुकम्पा ) है। परकृपा तो कोई कर ही नहीं सकता। परकृपा को श्रीप्रवचनसार सूत्र ८५ में मिथ्याभाव कहा है। वहाँ से ही ग्रन्थकार ने यह भाव लिया है। ज्ञानी पर की कृपा करते हैं यह मात्र उपचार कथन है। इसमें सत्यता कुछ नहीं । आस्तिक्य का निरूपण सूत्र १२२० से १२३४ तक १५ आस्तिक्य तत्त्वसद्भावे स्वतः सिद्धे विनिश्चितिः । धर्मे हेतौ च धर्मस्य फले चास्त्यादिमतिश्चितः ॥ १२२० ॥ सूत्रार्थ स्वतः सिद्ध तत्त्व के सद्भाव में विनिश्चय और धर्म में, धर्म के कारण में और धर्म के फल में आत्मा की " है " आदि रूप बुद्धि आस्तिक्य है। भावार्थ - सम्यग्दृष्टि को ऐसा निश्चय है कि छहों द्रव्य स्वतः सिद्ध हैं। अनादि अनन्त शाश्वत हैं। उनका स्वभाव या विभाव परिणमन भी स्वतः निरपेक्ष उनके ही आधीन है। मेरा पर से कुछ लगाव नहीं है। शुभ-अशुभ भाव अधर्म हैं। मात्र शुद्ध भाव धर्म है वह सम्यक्त्व और चारित्र रूप है। उस शुद्ध भाव का कारण मात्र अपनी समान्य शुद्ध आत्मा का आश्रय है। उसका फल अतीन्द्रिय सुख है। इस प्रकार की " है " रूप दृढ़ श्रद्धा का होना ही सम्यक्त्वी का आस्तिक्य गुण है । अब स्वयं श्रीअमृतचन्द्रजी इसका खुलासा करते हैं :
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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