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________________ ३५६ गन्थराज श्री पञ्चाध्यायी जरामृत्युदरिद्रादि न हि कामयते जगत् । तत्संयोगो बलादस्ति सतस्तत्राशुभोदयात् ॥ १२०९ ॥ सूत्रार्थ - बुढ़ापा, मृत्यु, दरिद्रता आदि जगत् नहीं चाहता है ( पर) उसका संयोग बलात् है क्योंकि वहाँ अशुभ । (कर्म) के उदय का सद्भाव है। भावार्थ - कुछ लोगों का आज ऐसा भी कहना है कि पर वस्तु का संयोग कर्माधीन नहीं है किन्तु राज समाज । व्यवस्था आधीन है। उपर्युक्त सूत्र उनकी मिथ्या मान्यता के स्पष्ट सूचक हैं। वास्तव में तो प्रत्येक सामग्री अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की स्वयं उपादान कारण की योग्यता आधीन है किन्तु निमित्त की दृष्टि से साता-असाता कर्मोदय आधीन है। राज समाज व्यवस्था तो न निमित्त कारण है न उपादान ! वह तो कोई वस्तु ही नहीं मात्र अज्ञानियों की कल्पनाओं का नाम राज समाज व्यवस्था है। अब इसी संवेग का नास्ति से विवेचन करते हैं। निर्वेद का निरूपण सूत्र १२१० से १२१३ तक ४ संवेगों विधिरूपः स्यान्झिर्वेदश्च निषेधनात् । स्याद्विवक्षावशाद् द्वैतं नार्थाटान्तर तयोः ॥ १२१० ॥ सूत्रार्थ - संवेग विधिरूप है और निर्वेद निषेधरूप है। विवक्षा वश से (संवेग और निर्वेद) में द्वैत है किन्तु उन दोनों में पदार्थ रूप से पदार्थान्तर ( भिन्न-भिन्न पदार्थपना) नहीं है। (अर्थात् दोनों एक ही वस्तु है) अस्ति से संवेग, नास्ति से निर्वेद। त्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो लक्षणात्तथा । स संवेगोऽथवा धर्मः साभिलाषो न धर्मवान ॥ १२११॥ सूत्रार्थ - सब अभिलाष का त्याग निर्वेद है और निर्वेद के इस लक्षण से वह संवेग अथवा धर्म ही बैठता है क्योंकि (संवेग धर्म को धारण करनेवाला)धर्मात्मा अभिलाषा सहित नहीं है। अब यह बताते हैं कि मिथ्यादृष्टि के कभी संवेग या निर्वेद नहीं होता चाहे वह कोई भी हो।। नापि धर्मः क्रियामानं मिथ्यादृष्टेरिहार्थतः । नियं रागादिसदभावात प्रत्युताधर्म एव सः ॥ १२१२॥ सूत्रार्थ - यहाँ मिथ्यादृष्टि का केवल व्यवहार क्रिया मात्र वास्तव में धर्म नहीं है क्योंकि ( उसके ) नित्य रागादि । भाव का सद्भाव पाया जाता है उलटा वह (क्रिया रूप धर्म ) अधर्म ही है। नित्यं रागी कुदृष्टिः स्यान्न स्यात् क्वचिदरागवाल । अस्तरागोऽस्ति सददष्टिर्नित्यं वा स्यान्न रागवान ॥ १२१३॥ सूत्रार्थ - मिथ्यादृष्टि नित्य रागी होता है, वह कभी भी अरागी नहीं होता। सम्यग्दृष्टि नित्य रागरहित होता है, वह कभी भी सरागी नहीं होता। अस्ति-नास्ति। राग का अर्थ मोह भाव है। सम्यग्दर्शन का लक्षण संवेग या निर्वेद समाप्त हुआ अनुकम्पा का निरूपण सूत्र १२१४ से १२१९ तक ६ अनुकम्पा कृपा ज्ञेया सर्वसत्तेष्वनुग्रहः । मैत्रीभावोऽथ माध्यस्थ नैःशल्यं वैरवर्जनात् ॥ १२१४ 11 सूत्रार्थ - अनुकम्पा कृपा जाननी चाहिये अर्थात् सब जीवों में अनुग्रह, मैत्रीभाव, मध्यस्थता, निशल्यता। वह सब जीवों में वैरभाव छोड़ने से होती है। दृड्मोहानुटयस्तत्र हेतुर्वाच्योऽस्ति केवलम् । मिथ्याज्ञानं बिना न स्याद्वैरभावः क्तचिटातः ॥ १२१५ ॥ सूत्रार्थ - उसमें केवल दर्शनमोह का अनुदय कारण कहा गया है। क्योंकि मिथ्याज्ञान के बिना वैरभाव कहीं भी नहीं होता।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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