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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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अथानुरागशब्दरय विधिर्वाच्यो यदार्थतः ।
प्राप्तिः स्थापलादियानार्थवाचकाः ॥ १२०३ ॥ सूत्रार्थ - अनुराग शब्द की जिस समय अर्थ से विधि वाच्य है तो प्राप्ति या उपलब्धि अर्थ है क्योंकि ये शब्द एकार्थवाचक हैं।
भावार्थ - संवेग या अनुराग का अर्थ अभिलाषा या इच्छा नहीं है। अभिलाषा या इच्छा तो किसी प्रकार की सम्यग्दृष्टि के होती ही नहीं है किन्तु संवेग या अनुराग का अर्थ प्राप्ति अथवा उपलब्धि है।
न चाशंक्य निषिद्ध: स्यादभिलाषो भोगेष्वलम् ।
शुद्धोपलब्धिमात्रेऽपि हेयो भोगाभिलाषवत् ॥ १२०४ ॥ सूत्रार्थ - ऐसी आशङ्का नहीं करना चाहिये कि (सम्यग्दृष्टि की) केवल भोगों में ही अभिलाषनिषिद्ध है किन्तु भोगाभिलाष के समान शुद्धोपलब्धि मात्र में भी अभिलाषा नहीं है अर्थात् सम्यग्दृष्टि के किसी प्रकार की भी अभिलाषा नहीं है। इसी को स्पष्ट करते हैं।
अर्थात्सर्वोऽभिलाषः स्यादज्ञानं दृगविपर्ययात् ।
न्यायादलब्धतत्त्वार्थो नई कामो न लबिधमान 11 १२०५।। सूत्रार्थ - वास्तव में सब अभिलाष अज्ञान है क्योंकि सम्यग्दर्शन से विपरीत है। न्याय से भी तत्वार्थ को अप्राप्त जीव ही प्राप्ति के लिये इच्छुक है। तत्त्वार्थ प्राप्त नहीं।
भावार्थ - यहाँ कोई शङ्का करे कि सम्यग्दृष्टि के लौकिक किसी भी वस्तु या भाव या संयोग की अभिलाषा नहीं है यह तो ठीक पर क्या उसके आत्मा की प्राप्ति या मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं है तो कहते हैं कि नहीं है। उसको युक्ति से सिद्ध करते हैं कि अभिलाषा तो उस चीज की हुआ करती है जिसकी कि प्राप्ति न हुई हो। सम्यग्दृष्टि को तो आत्मप्रत्यक्ष हो गया है। शुद्ध भाव विद्यमान है और उसका फल अवश्यंभावी मोक्ष अर्थात् अतीन्द्रिय सुख है क्योंकि शुद्धभाव और अतीन्द्रियसुख उसका अविनाभावफल है। फिर भला जो चीज उसे प्राप्त ही है उसकी अभिलाषा कैसी?
है कि मैं मक्त स्वरूप ही हैं। ये जो पर्याय पर में अटक रही है बस यही मेरे पुरुषार्थ की निर्बलता है। जहाँ यह पर्याय स्वरूप में स्थित हुई और मैं मुक्त हुआ। दूसरे वह यह भी जानता है कि कोई भी इच्छा करना अज्ञानभाव अर्थात् मूढ़ता है क्योंकि प्रत्येक वस्तु का परिणमन स्वतन्त्र है और संयोग-वियोग स्वत: अपने कारण से या साताअसाता के निमित्ताधीन है। यह इच्छा रूप राग निष्फल ही है। इसकी क्रियाकारित्व कुछ नहीं है। यह केवल मूर्खता की सूचक है। इस कारण भी सम्यग्दृष्टि को पर इच्छा नहीं होती। इच्छा की पूर्ति अपने आधीन नहीं है इसको वह भली-भाँति जानता है सोई कहते हैं -
मिथ्या सर्वोsभिलाषः स्यान्मिथ्याकर्मोदयात्परम् ।
स्वार्थसार्थक्रियासिन्द्रौ नालं प्रत्यक्षतो यतः ॥ १२०६ ॥ सूत्रार्थ- सब अभिलाषा मिथ्या है क्योंकि केवल मिथ्यात्व कर्म के उदय से होती है क्योंकि अभिलाषा प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रयोजन की सम्पूर्ण क्रिया की सिद्धि में समर्थ नहीं है।
क्वचित्तस्थापि सद्भावे नेष्टसिद्धिरहेतुतः ।
अभिलाषस्याभावेऽपि स्वेष्टसिद्धिश्च हेतुतः ।। १२०७ ।। सूत्रार्थ - कहीं पर उस ( अभिलाषा) के सद्भाव में भी इष्टसिद्धि नहीं है क्योंकि उसके कारण (कर्म उदय) का सद्भाव नहीं है और कहीं पर अभिलाष के अभाव में भी अपने इष्ट की सिद्धि है क्योंकि उसके कारण(कर्मोदय) का सद्भाव है।
यशः श्रीसुतमित्रादि सर्व कामयते जगत् ।
जास्य लाभोऽभिलाषेऽपि बिना पुण्योदयात्सतः ॥ १२०८ ।। सूत्रार्थ - यश, लक्ष्मी, पुत्र, मित्र आदि सब जगत् चाहता है किन्तु इस ( जगत ) के अभिलाष होने पर भी लाभ नहीं है क्योंकि पुण्य के उदय का सद्भाव नहीं है।