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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
संवेग का निरूपण सूत्र ११९९ से १२१३ तक १५ संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चितः ।
सधर्मेष्वनुरागो वा ग्रीतीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥ ११९९ ॥ सूत्रार्थ - आत्मा के धर्म में (वीतराग भाव में) और धर्म के फल में (अतीन्द्रिय सुख में ) परम उत्साह या सर्मियों में अनुराग अथवा परमेष्ठियों में प्रीति संवेग है।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि की स्वभाव से शद्ध भाव में रुचि होती है। शुद्ध भाव के फल अतीन्द्रिय सुख में रुचि होती है तथा शुद्धभाव धारी चौथे से सिद्ध तक के सब जीवों में प्रीति होती है। यह संवेग है। नास्ति से यह भी सिद्ध हो गया कि अधर्म में ( शुभाशुभ भाव में), अधर्म के फल रूप इन्द्रिय सुख-दुःख में तथा एकान्त शुभाशुभ में प्रवृत्ति करनेवाले अधर्मियों में उसकी प्रीति नहीं होती। इसी को नास्ति से निर्वेद कहते हैं।
धर्म और धर्म के फल का स्वरूप धर्मः सम्यक्त्वमात्रात्मा शुद्धस्यानुभवोऽथता ।
तत्फलं सुरवमत्यक्षमक्षयं क्षायिकं च यत् ॥ १२०० ॥ सत्रार्थ- सम्यक्त्व मात्र है स्वरूप जिसका(श्रद्धा)और शद्ध आत्मा का अनभव(चारित्र वह सुख है जो अतीन्द्रिय, अविनाशी और कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला है।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि स्वप्न में भी शुभ भाव को धर्म नहीं समझता और न शुभ भाव के फल ऐन्द्रिय सुख को चाहता है। किन्तु वह वस्तु स्वरूप का परिज्ञाता है। मोह क्षोभ से रहित आत्मा के शुद्ध भाव को ही धर्म समझता है। । उस शुद्ध भाव का नाम ही सम्यग्दर्शन और सम्यक्यारित्र है। वह कभी इन विकल्पों को सम्यक्त्व या शुभ क्रियाओं या शभ विकल्पों को चारित्र नहीं मानता। तथा वह यह भी जानता है कि शद्ध भाव का फल जो अतीन्द्रिय सुख है वह आत्मा से उत्पन्न होनेवाला सुना है। यही वामान में सवा सुम्मा ले आमा को तुत कर सकता है। यह ऐन्द्रिय सुख को तृष्णा उत्पादक है, हेय है।
इतरत्र पुना रागरत्तगुणेष्वनुरागतः ।
नाताणेऽनुरागोऽपि तत्फलस्याप्यलिप्सया ॥ १२०११॥ भावार्थ - इधर ( अर्थात् साधर्मियों में और परमेष्ठियों में) जो राग है वह उनके गुणों में अनुराग के कारण है। अतद्गुण में ( अर्थात् जिनमें वे गुण नहीं हैं ऐसे अन्य जीवों में अर्थात् अधर्मियों में)अनुराग नहीं है क्योंकि (सम्यादृष्टि के ) उस ( अतद्गुण अर्थात् अधर्म ) के फल की इच्छा नहीं है। __ भावार्थ - इसमें अस्ति-नास्ति से दोनों बातें दिखाई गई हैं कि सम्यग्दृष्टि का सर्मियों और परमेष्ठियों में राग क्यों है; क्योंकि उसे शुद्ध भाव रूप धर्म की प्रीति है और वे उसके धारी हैं। तथा उसको अन्य जीवों में प्रीति क्यों नहीं है इसलिये कि उसे शुभाशुभ भाव की तथा उसके फल इन्द्रिय सुख-दुःख से प्रीति नहीं है और वे जीव उसके धारण करने वाले हैं। यह तो स्वतः नियम है कि जो जैसा होता है उसकी उसी भाव में और उसी भाव वालों में रुचि होती है। व्यसनी की व्यसनी में और धर्मात्मा की धर्मात्मा में।
अञानरागशब्देन नाभिलायो निरुच्यते ।
किन्तु शेषमधर्माद्वा निवृत्तिस्तत्फलादपि ॥१२०२॥ सूत्रार्थ - यहाँ अनुराग शब्द से अभिलाषा नहीं कहा गया है किन्तु अधर्म से निवृत्ति अथवा अधर्म के फल से भी निवृत्ति होकर जो शेष रहता है वह अनुराग शब्द का अर्थ है। ___ भावार्थ - यहाँ आचार्य देव ने एक खास बात स्पष्ट की है जिसकी संसारी जीवों को शल्य रहा करती है। सम्यग्दृष्टि जीव को किसी जन्त्र-मन्त्र औषधि लौकिक लाभ या लौकिक सुख की इच्छा नहीं है कि जिसके कारण वह सच्चे त्यागियों, मुनियों, आचार्यों या परमेष्ठियों से अनुराग करता है किन्तु मात्र शुद्ध भाव रूप धर्म उसे प्रिय है और वे उसके धारी हैं बस यह अनुराग शब्द का वाच्य है और कुछ नहीं तथा यह संवेग गुण इस बात का भी सूचक है कि अधर्म, अधर्म के फल और अधर्म के धारियों में उसकी रुचि नहीं है।