SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खण्ड/पंचप पुस्तक प्रशमो विषयेषुच्चै नकोधाटेकेषु च । नोकासंख्यातमानेषु स्वरूपाच्छिथिले मनः ॥ ११९४ ।। सूत्रार्थ - (पंचेन्द्रिय) विषयों में और असंख्यात लोक मात्र तीव्र भावक्रोध-आदिकों में स्वरूप से ( स्वतः स्वभाव से ) शिथिल मन का होना प्रशम है। भावार्थ - सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय ही अनन्तानुबंधी कषायों का नाश हो जाता है ऐसा अविनाभाव संबंध है। पंचेन्द्रिय विषयों में तथा क्रोधादिक में तीव्रता अनन्तानुबन्धी रूप ही है। उसके अभाव को ही प्रशम कहते हैं। सम्यग्दृष्टि का मन कषायों में स्वतः ढीला हो जाता है। इस ढीलेपन का नाम प्रशम है। अब इसको दृष्टान्त से समझाते हैं। साः कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुचित् । तद्वधादिविकाराय न बुद्धिः प्रशमो मतः ॥ ११९५॥ सूत्रार्थ - अथवा तत्काल किया है अपराध जिन्होंने ऐसे जीवों पर कभी भी उनके बध-आदि विकार के लिये बुद्धि (भाव) का न होना प्रशम माना गया है। भावार्थ - सम्यग्दृष्टि का कोई कितना भी बुरा करने का भाव करे यहाँ तक कि उसे मारने या उसका धनादि नष्ट करने के लिये प्रवृत्त होवे तो भी उसको स्वभाव से ही उसके जान से मारने का भाव कभी उत्पन्न नहीं होता। उसके प्रति प्रथम तो कषाय ही उत्पन्न न होगी यदि होगी तो बहुत हल्की-सी और वह यह तुरन्त समझ लेता है कि यह मेरी स्वरूप अस्थिरता की निर्बलता के कारण है। इसके कारण नहीं। अब इस प्रशम का वास्तविक कारण बताते हैं। हेतुस्तयोदयाभावः स्यादनन्तानुबन्धिनाम् । अपि शेषकषायाणां नूनं मन्दोदयोंशतः ॥ ११९६॥ सूत्रार्थ - उस ( प्रशम ) में कारण अनन्तानुबन्धी कषायों के उदय का अभाव है और शेष ( अप्रत्ययाख्यानादि) कषायों का अंश रूप से मन्द उदय भी वास्तव में कारण हैं। यहाँ भाव और द्रव्य रूप दोनों प्रकार की कषायों का ग्रहण है। आरम्भादिकिया तस्य दैवाद्वा रयादकामतः । अन्त:शुद्धेः प्रसिद्धत्वान्न हेतुः प्रशमक्षतेः ॥ ११९७ ॥ सूत्रार्थ - आरम्भ-आदि क्रिया उस ( सम्यग्दृष्टि ) के दैव योग से अनिच्छापूर्वक होती है। अन्तरंगशुद्धि की प्रसिद्धि होने से वह (किया) प्रशम के नाश के लिये कारण नहीं है। भावार्थ - कोई यह शङ्का करे कि सम्यग्दृष्टि व्यापार करता है। मुकदमा भी होता है। उसके राज-पाट भी होता है। स्त्री, पुत्र, नौकर, चाकर भी होते हैं। उसमें कषाय करते समय तो प्रशम का नाश होता होगा तो कहते हैं कि उनमें राग तो उनको होता है जो उन क्रियाओं के कर्ता-भोक्ता हैं। सभ्यग्दष्टि किसी कर्मज क्रिया का स्वामीपने कर्ता-भोक्ता नहीं है। वह समझता है कि यह सब पर द्रव्यों का परिणमन अपनी-अपनी योग्यता से हो रहा है अथवा इनमें इनके क्रियाएं उसके अनिच्छापूर्वक होती हैं। यही कारण है कि उसकी अन्तरंग शुद्धि का नाश नहीं हो पाता और प्रशम गुण हर संयोग में बना ही रहता है। सम्यक्त्वेनातिनाभूतः प्रशमः परमो गुणः । अन्यत्र प्रशमं मन्येऽध्याभासः स्यात्तदत्ययातः || ११९८॥ सूत्रार्थ - सम्यक्त्व से अविनाभावी प्रशम परम गुण है। उस (सम्यक्त्व) के अभाव से अन्यत्र ( मिथ्यादृष्टि में ) प्रशम भी आभास है ऐसा मैं मानता हूँ। भावार्थ - श्री अमतचन्द्र आचार्यदेव कहते है कि देखने में तो बाहर से मियादष्टि के भी इतना पणाम होता है कि कोई शरीर के खण्ड-खण्ड भी कर दे तो क्लेश न करे और रंचमात्र क्रोध न करे पर सम्यक्त्व तथा आत्मानुभूति के अभाव के कारण मैं उसे प्रशम नहीं किन्तु प्रशमाभास मानता है।हाँसम्यग्दृष्टि के प्रशम पर सम्यादर्शन का आरोप किया जाये तो मुझे स्वीकार है अर्थात् प्रशम सम्यग्दष्टि का बाह्य लक्षण है मिथ्यादृष्टि का नहीं। सम्यक्त्व का लक्षण"प्रशम" समाप्त हुआ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy