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बिना स्वात्मानुभूतिं तु या श्रद्धा श्रुतभारत । तत्वार्थानुगताय्यार्थाच्छ्रद्धा नानुपलब्धितः ॥ ११८२ ॥
सूत्रार्थ स्वात्मानुभूति के बिना जो श्रद्धा आगम मात्र से है। वह तत्त्वार्थ के अनुसार होती हुई भी वास्तव में श्रद्धा नहीं है क्योंकि अनुभव रूप से उसकी प्राप्ति नहीं है।
भावार्थ - यद्यपि मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा आगमानुकूल है और जैसा तत्त्वार्थ का स्वरूप आगम में लिखा है और है वैसा ही उसने श्रद्धा भी की है किन्तु उस श्रद्धा की वहाँ तक कोई कीमत नहीं जहाँ तक कि स्वात्मानुभूति द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष अनुभव गम्य न हो जाय ।
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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
लब्धिः स्यादविशेषाद्वा सदसतोरुन्मत्तवत् ।
नोपलब्धिरिहार्थात्सा तच्छेषानुपलब्धिवत् ॥ ११९० ॥
सूत्रार्थं सत्-असत् में विशेषता न होने से (तत्त्वों की ) लब्धि उन्मत्तवत् है । वह उपलब्धि वास्तव में उपलब्धि नहीं है। वह तो शेष (अज्ञात) पदार्थों की अनुपलब्धि के समान है।
भावार्थ- जब तक पदार्थ स्वात्मानुभूति द्वारा अनुभव गम्य न हो जाय तब तक उसको वास्तव में सच्चे झूठे तत्त्व की पहचान नहीं होती क्योंकि तत्त्व की प्राप्ति आगम श्रद्धा से नहीं कही जाती किन्तु अनुभव से तत्व की प्राप्ति कही जाती है। अतः जिस प्रकार अन्य अज्ञात पदार्थों का ज्ञान नहीं है उसी प्रकार तत्त्वों की आगम से श्रद्धा होते हुए भी वह नहीं जाने हुए के समान ही है। उसको जानना या श्रद्धान ही नहीं कहते। यह सूत्र वही है जो श्रीमोक्षशास्त्रजी में हैं" सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्" भाव यह है कि मिथ्यादृष्टि को स्वात्मानुभूति बिना सत् और असत् का अन्तर ज्ञात नहीं है और उसका तत्त्वों के स्वरूप को कहना इच्छानुसार पागलवत् बकवास है। आगमज्ञान तो मिध्यादृष्टि ११ अंग तक करता है पर अनुभव बिना शून्य है। सम्यग्दृष्टि अल्पश्रुति की भी श्रद्धा सच्ची श्रद्धा है।
ततोऽस्ति यौगिकी रूढिः श्रद्धा सम्यक्त्वलक्षणं ।
अर्थादप्यविरुद्धं स्यात् सूक्तं स्वात्मानुभूतिवत् ॥ ११२१ ॥
सूत्रार्थं - इसलिये श्रद्धा सम्यक्त्व का लक्षण है यह यौगिक (शास्त्रीय ) रूढ़ि है। यह कथन पदार्थ रूप से तब अविरुद्ध है जब उसे स्वात्मानुभूति से युक्त माना जावे।
सूत्र ११७८ से १९९९ तक का सार जहाँ भी शास्त्रों में ' तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यक्त्वं' कहा है उसका अर्थ यही है कि वह स्वात्मानुभूति सहित सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। मिथ्यादृष्टि के श्रद्धान को तो आगम में श्रद्धान ही नहीं कहा है क्योंकि उसके तत्त्वार्थं में सत्-असत् का निर्णय नहीं है और उसे अनुभव रूप से तत्त्वार्थ की प्राप्ति नहीं है।
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सम्यक्त्व का लक्षण श्रद्धा समाप्त हुआ । चौथा अवान्तर अधिकार
सम्यक्त्व के लक्षण प्रशम-संवेग (निर्वेद) - अनुकम्पा - आस्तिक्य
सूत्र १९९२ से १२४८
गुणाश्चान्ये प्रसिद्धा ये सद्दृष्टेः प्रशमादयः । बहिर्द्धष्ट्या यशास्त्रं ते सन्ति सम्यक्त्वलक्षणाः ॥ ११९२ ।।
सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि के प्रशम- आदिक जो अन्य गुण (लक्षण) प्रसिद्ध हैं। बहिर्दृष्टी से यथायोग्य वे भी सम्यक्त्व के लक्षण हैं (सहचर लक्षण हैं ) ।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि के प्रशम आदि वास्तव में चारित्र गुण की विकल्पात्मक शुभभाव रूप पर्याय है जो पुण्य तत्त्व हैं। उनको अविनाभाव सम्बन्ध के कारण यहाँ सम्यक्त्व लक्षण कहा है; यही बहिर्दृष्टि का अर्थ है।
प्रशम का निरूपण सूत्र ११९३ से १९९८ तक ६
तत्राद्यः प्रथमो नाम संवेगश्च गुणः क्रमात् ।
अनुकम्पा तथास्तिक्यं वक्ष्ये तल्लक्षणं यथा ॥ ११९३ ॥
सूत्रार्थ उनमें पहला प्रशम नाम है, फिर संवेग गुण है। फिर अनुकम्पा तथा आस्तिक्य है। उनके लक्षण को क्रम से कहूँगा । वह इस प्रकार है :