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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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स्वानुभूतिरसनाथाश्चेत् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः ।
रखानभति विनाभासा नाच्छद्धादयो गणाः ॥११८३१ सूत्रार्थ - यदि स्वानुभूति सहित हैं तो श्रद्धा-आदिक सम्यक्त्व के गुण ( लक्षण) हैं। स्वानुभूति के बिना आभास रूप हैं। वास्तव में वे श्रद्धा-आदिक गुण नहीं हैं सम्यक्त्व के लक्षण नहीं हैं।
तत्स्याच्छद्धाटय: सर्वे सम्यक्त्वं स्वानुभूतिमत् ।
ल सम्यवत्वं तदाभासा मिथ्या श्रद्धादिवत् स्वतः ॥११८४ ।। सूत्रार्थ - इसलिये श्रद्धा, आदि सब स्वानुभूति सहित सम्यक्त्व हैं। स्वानुभूति के बिना सम्यक्त्व नहीं हैं किन्तु उसके आभास रूप हैं (जैसे श्रद्धाभास, रुच्याभास इत्यादिक) वे स्वतः मिथ्या श्रद्धानादि के समान हैं अर्थात् श्रद्धा आदिक ही नहीं हैं या मिथ्याश्रद्धादिक हैं।
सम्यमिथ्याविशेषाभ्यां बिना श्रद्धादिमात्रकाः ।
सपक्षवद्विपक्षेऽपि वृत्तित्वाद् व्यभिचारिणः ॥११८५॥ सूत्रार्थ - सम्यक् और मिथ्या विशेषणों के बिना मात्र श्रद्धा-आदिक सपक्ष के समान विपक्ष में भी रहने से व्यभिचारी हैं (व्यभिचार दोष युक्त हैं)।
भावार्थ - केवल श्रद्धा आदिक को सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं कहते क्योंकि ये सम्यग्दष्टि मिथ्यादृष्टि दोनों में पाये जाते हैं किन्तु उसके साथ समझदारों को सम्यक् विशेषण लगा देना चाहिये ताकि सम्यक्ची का ग्रहण हो जाये और मिथ्यात्वी का निराकरण हो जाये। अत: सम्यक श्रद्धा,सम्यक्रुचि,सम्यक्प्रतीति,सम्यक्चरण, सम्यक्त्व के आरोपित लक्षण कहने में फिर कोई दोष नहीं रहता।
अर्थाच्छद्धादयः सम्यग्दृष्टिश्रद्धादयो यतः ।
मिथ्याशद्धादयो मिथ्या नार्थाच्छ्रद्धादयो ततः ॥ ११८६॥ सूत्रार्थ - वास्तव में श्रद्धा-आदिक सम्यग्दृष्टि के श्रद्धा-आदिक ही हैं क्योंकि मिथ्या-श्रद्धा-आदिक मिथ्या हैं। इसलिये वे वास्तव में श्रद्धा-आदिक ही नहीं हैं। अब इसी को विशेष स्पष्ट कहने के लिये शङ्का समाधान द्वारा पीसते हैं।
शङ्का
जन तत्त्वरुचिः श्रद्धा भन्दामात्रैकलक्षणाल ।
सम्यइमिथ्याविशेषाम्यां सा द्विधा तत्कुतोऽर्थतः ॥११८७॥ शंका - तत्त्व रुचि श्रद्धा है क्योंकि श्रद्धा का श्रद्धा मात्र यही एक लक्षण है। सम्यक् मिथ्या विशेषणों से युक्त वह दो प्रकार की है। वह वास्तव में कैसे है ?
भावार्थ - देव,शास्त्र, गुरु की श्रद्धा जैसी सम्यग्दृष्टि को है वैसी मिथ्यादष्टि को है फिर एक की श्रद्धा को सम्यक् श्रद्धा और एक की श्रद्धा को मिथ्या श्रद्धा ऐसा भेद क्यों किया जाता है ? नौ तत्त्वों की श्रद्धा दोनों को है। श्रद्धान, श्रद्धान एकसा।
समाधान सूत्र ११८८ से ११९१तक ४ नैव यतः समव्याप्ति: श्रद्धास्वानुभवद्वयोः ।
लूलं नानुपलब्धेऽर्थे श्रद्धा रवरविषाणवत् ॥ ११८८ ॥ सूत्रार्थ - ऐसा नहीं है क्योंकि श्रद्धा और स्वानुभव इन दोनों में समव्याप्ति है। वास्तव में अप्राप्त पदार्थ में श्रद्धा गधे के सींगवत् है।
भावार्थ - आत्मा की स्वानुभूति होने पर जो स्व पर की श्रद्धा है वह तो सम्यक् श्रद्धा है क्योंकि उसने तो पदार्थ अनुभव में आने पर श्रद्धा की है और अनुभव तो आया ही नहीं मात्र शास्त्र के पाठ के आधार पर श्रद्धा है वह तो बिना देखे की श्रद्धा गधे के सींगवत् शून्य है। मिथ्या है। झूठी है। उसकी कुछ कीमत नहीं। वह सम्यक्त्व की लक्षण नहीं।